“आसमान में बादल छितराए रहेंगे. बादल टुकडों में उमड़-घुमड़ सकते हैं और हल्की बारिश हो सकती है. अगले कुछ दिनों तक सिवान के प्रतापपुर में मौसम का मिज़ाज कुछ ऐसा ही रहने वाला है. आसमान भी हमारे साथ मातम मना रहा है.”
यह कहने वाले उस व्यक्ति ने अपना नाम तो नहीं बताया, लेकिन वह ग़ुस्से में था. उसने कहा- साहेब को लालू यादव ने धोखा दिया. उसने कहा, उन्होंने शहाबुद्दीन का शव उनके शहर में क्यों नहीं आने दिया. उन्हें किस चीज़ का डर था?
अब उनकी क़ब्र में लगे पत्थर पर सिर्फ़ उनका नाम, पैदा होने की तारीख़, मरने के दिन और इस बात का ज़िक्र है कि वे कहाँ के थे. यह क़ब्र भी अब यहाँ की तमाम गुमनाम क़ब्रों की तरह एक कोने में खड़ी है.
दफ़नाए जाने के एक दिन बाद क़ब्र पर बिखरी गुलाब की पंखुड़िया पीली पड़ गई हैं. आरजेडी के नेता मोहम्मद शहाबुद्दीन की देह अब दिल्ली की इस क़ब्रगाह का हिस्सा बन चुकी है. हर शाम शहाबुद्दीन के युवा पुत्र यहाँ आईटीओ पर मौजूद जदीद क़ब्रिस्तान अहले इस्लाम में आते हैं. हर दिन उनका एक घंटा अपने पिता की क़ब्र पर बीतता है. पूरे दिन दूसरे लोग भी आते रहते हैं.
शहाबुद्दीन के बेटे ओसामा शहाब अपने मरहूम पिता का शव बिहार के अपने गृह शहर सिवान ले जाना चाहते थे. लेकिन कोविड प्रोटोकॉल की वजह से यह सुविधा नहीं मिल सकी.
उनके वालिद को सिवान का सुल्तान कहा जाता था. दिल्ली में उनका इंतकाल हो गया. यहीं तिहाड़ जेल में वह बंद थे. अब वह भी तमाम दूसरे लोगों की तरह दिल्ली की एक क़ब्र में दफ़न हो चुके हैं.
इस क़ब्रगाह की देखरेख करने वाले मोहम्मद शमीम करते हैं, यहां एक सफेद पत्थर गाड़ दिया जाएगा. यहीं उनकी एक मज़ार बना दी जाएगी. मोहम्मद शमीम शहाबुद्दीन को जानते थे. वह दिल्ली में उनसे कई बार मिल भी चुके थे.
वह कहते हैं, “मैं देख रहा हूँ कि लोग दिन भर यहाँ आकर उनकी क़ब्र पर फूल चढ़ा रहे हैं.”
‘सांस इज लेस एंड वर्क इज मोर’
कहीं दूर लालू प्रसाद यादव शहाबुद्दीन के जाने का शोक मना रहे हैं. आख़िर वह उनके भरोसमंद सहयोगी थे. लालू कहते हैं कि यह उनका निजी नुकसान है. साल 2016 में ख़तरनाक डॉन और आरजेडी के सांसद शहाबुद्दीन सिवान गए थे.
उस दौरान एक टेलीविजन इंटरव्यू में उन्होंने कहा था, “सांस इज लेस एंड वर्क इज मोर” यानी उम्र छोटी है और काम बहुत ज्यादा है. उन्होंने कहा था कि वह जिंदगी की आख़िरी सांस तक अपने लोगों के लिए काम करते रहेंगे. शायद उन्हें इसका अंदाज़ा हो गया था.
कोविड-19 के शिकार शहाबुद्दीन की एक मई को दिल्ली में मौत हो गई. इसके चार दिन बाद भी उनके गाँव में किसी ने खाना नहीं बनाया. रमज़ान का महीना चल रहा है. लेकिन शाम को होने वाली इफ़्तार भी सादी रखी जा रही थी. सिवान को उनकी जागीर समझा जाता था.
लोगों को अब यहाँ शहाबुद्दीन के बेटे के आने का इंतज़ार है. उनके लिए यह एक युग के ख़त्म होने जैसा है. एक तरफ़ ग़ुस्सा और मायूसी है. दूसरी ओर राहत और जीत का आलम है. यह इस पर निर्भर है कि आप किससे बात कर रहे हैं.
लेकिन हर आदमी यही कहेगा कि शहाबुद्दीन ऐसे व्यक्ति थे, जिन्हें कोई भूल नहीं पाएगा. प्रशासन के लिए वह भारी आफत थे. पुलिस के लिए कोई बुरा सपना और अपने साये में फलने-फूलने वालों के लिए मसीहा.
शहाबुद्दीन के पैतृक गाँव प्रतापपुर में एक अजीब सी ख़ामोशी है. एक स्थानीय पत्रकार ने कहा कि लोग उनके बेटे के लौटने का इंतज़ार कर रहे हैं. शायद अब उनकी विरासत की बागडोर उन्हें थमाई जाएगी. लेकिन सब जानते हैं कि इसे संभालना काफ़ी मुश्किल काम होगा.
शहाबुद्दीन के परिवार का आरोप है कि तिहाड़ जेल में उनकी ‘हत्या’ कर दी गई. शहाबुद्दीन 2004 के एक डबल मर्डर केस में तिहाड़ जेल में उम्र क़ैद की सज़ा काट रहे थे. उनकी उम्र 53 साल थी.
कोविड पॉजिटिव पाए जाने के बाद उन्हें दिल्ली के एक प्राइवेट अस्पताल में भर्ती कराया गया था. दो दिन बाद जब उनकी हालत बिगड़ गई तो उन्हें वेंटिलेटर पर रखा गया.
कोरोना संक्रमित होने के बाद शहाबुद्दीन के परिवार ने दिल्ली हाई कोर्ट में अपील दायर कर उनके बेहतर इलाज का निर्देश देने को कहा था. इस अपील पर सुनवाई करते हुए हाई कोर्ट ने जेल अधिकारियों को ज़रूरी निर्देश दिए थे.
लेकिन उनके समर्थकों का आरोप है कि साहेब के लिए आरजेडी ने पर्याप्त क़दम नहीं उठाया जबकि वह ज़िंदगी भर लालू के वफ़ादार बने रहे. फ़िलहाल, मरने के बाद भी विवादास्पद बने हुए शहाबुद्दीन के साथी अब भी मातम मना रहे हैं.
लेकिन लोग उनकी यादों को लेकर बँटे हुए हैं. कुछ लोग उन्हें रहनुमा मानते हैं तो कुछ के लिए वे एक अपराधी से ज्यादा कुछ नहीं थे. हालांकि यह बात मानी हुई है कि टकराव भरी बिहार की राजनीति में उनकी छवि एक रॉबिनहुड जैसी थी.
लेकिन वह अपनी इस छवि तक ही सीमित नहीं थे. ‘सिवान के सुल्तान’ की मौत की साजिश पर तरह-तरह की कहानियां गढ़ी जा रही हैं.
लेकिन मीडिया जिसे बाहुबली, खूंखार डॉन और अपराधी नेता कहता था, उसकी मौत पर यहां हर तरफ मातम का सैलाब दिखता है.
बाहुबली डॉन की पसंद थीं किताबें और ह्यूगो बॉस की टी-शर्ट्स
शहाबुद्दीन बाहुबली भी थे और खूंखार डॉन भी. वह अपराध की दुनिया से राजनीति में आए थे. लेकिन वह और भी बहुत कुछ थे. सिवान में पले-बढ़े महताब आलम अब आरजेडी में शामिल हो गए हैं.
अपने घर में लगे शहाबुद्दीन और लालू यादव के पोस्टरों को देखते हुए वह पुरानी बातों को याद करते हैं. महताब के परिवार का कोई राजनीतिक बैकग्राउंड नहीं था. लेकिन उनके परिवार के लोग लालू और शहाबुद्दीन को सेक्युलर मानते थे.
वर्षों बाद 2009 में महताब की मुलाक़ात शहाबुद्दीन से गया जेल में हुआ करती थी. वह शहाबुद्दीन के लिए किताबें लेकर जाते थे.
महताब कहते हैं कि कि शहाबुद्दीन खूब पढ़ा करते थे. वह राजनीति विज्ञान में पीएचडी थे. 33 साल के आलम शहाबुद्दीन को एक ऐसे शख्स के तौर पर जानते हैं जो अंदर से बड़ा स्टाइलिश था. आलम कहते हैं, “उन्हें ह्यूगो बॉस की टी-शर्ट्स बड़ी पसंद थीं.”
दो साल पहले वह शहाबुद्दीन से तिहाड़ जेल में मिले थे. आलम कहते हैं, “वह सफेद कुर्ता और पायजामा पहने हुए थे. उन्होंने मुझसे चुनावों के बारे में पूछा. फिर कहा कि कई दिन हो गए उन्होंने सूरज की रोशनी नहीं देखी है.”
लेकिन जो एक चीज़ आलम की याद में बरकरार वह ये कि शहाबुद्दीन जहां भी जाते थे उनके साथ जेल मैनुअल और संविधान जरूर हुआ करता था. आलम कहते हैं, “वह ख़ुद फ़ारसी सीख रहे थे.”
एक बार का वाक़या याद करते हुए आलम कहते हैं कि कैसे शहाबुद्दीन ने पटना पुस्तक मेला से 40 हज़ार रुपये की किताबें ख़रीदी थीं.
सिवान के सामाजिक कार्यकर्ता और लेखक जितेंद्र वर्मा शहाबुद्दीन के क़रीब थे. उन्होंने कहा, “निराला की किताबें शहाबुद्दीन को बड़ी प्रिय थीं. वे दूसरे मशहूर लेखकों की रचनाएं भी पढ़ा करते थे. प्रतापपुर के घर में उनकी निजी लाइब्रेरी थी.”
शायद प्रतापपुर में शहाबुद्दीन की मूर्ति लगे. लेकिन उनकी कब्र पर लगे पत्थर पर उनके बारे में जो लिखा है, वह उनके बारे में सिवाय तथ्यों के अलावा कुछ नहीं बताता है. लेकिन शहाबुद्दीन जैसा शख्स सिर्फ़ तथ्यों का बना नहीं होता.
तथ्य उनकी पूरी शख्सियत का एक हिस्सा होता है. दरअसल, इस तरह के लोगों की शख्सियत तमाम तरह के नज़रियों, उन्हें देखे जाने के तरीक़ों, फ़ैसलों और कुछ असहज सच्चाइयों को मिलकर बनी होती है.
क्या शहाबुद्दीन राजनीति की बिसात पर महज़ एक प्यादा थे?
शहाबुद्दीन अपराध और राजनीति के नापाक के गठजोड़ से पैदा हुए शायद सबसे स्वछंद, सबसे अनोखे और सबसे ताक़तवर बाहुबली थे. कुछ लोगों का कहना है बड़े दांव वाली राजनीति की दुनिया में एक वह एक प्यादा भर थे.
कुछ लोग कहते हैं कि शहाबुद्दीन ने जैसी हिंसा फैलाई, वैसी इससे पहले किसी ने नहीं फैलाई थी. कुछ लोग मौत के बाद उनके प्रति थोड़ी नरमी बरतते दिखे.
सिवान के ही रहने वाले अजय तिवारी ने सोशल मीडिया पर लिखा कि वह हमेशा से शहाबुद्दीन के आलोचक रहे हैं. लेकिन अगर आज वह जेल से बाहर होते तो सिवान को मेडिकल ऑक्सीजन और डॉक्टरों की ऐसी किल्लत नहीं झेलनी पड़ती. सरकारी अस्पताल के डॉक्टर के अस्पताल में आकर मरीज़ों को देखते, अपने दवाखानों में बैठे नहीं रहते.
वह लिखते हैं, “शहाबुद्दीन को याद किए जाने को लेकर सिवान के लोग हमेशा पसोपेश में रहेंगे. यह व्यवस्था की नाकामी ही है जो किसी शहाबुद्दीन को रॉबिनहुड जैसा बना देती है. आज भी बिहार में सिस्टम विलेन बना हुआ और लोग यहां से पलायन करने को मजबूर हैं. बिहार के लोग अब भी अपने-अपने रॉबिनहुड तलाश रहे हैं.”
जेएनयू में पीएचडी कर रहे और आरजेडी की राज्य कार्यकारिणी के सदस्य जयंत जिज्ञासु कहते हैं कि मीडिया में शहाबुद्दीन की जो छवि पेश की जाती है उसमें कभी यह नहीं बताया जाता कि उन्होंने कभी भी सांप्रदायिक हिंसा को हवा नहीं दी. लालू के प्रति उनकी वफ़ादारी बिना शर्त रही.
वह कहते हैं, “शहाबुद्दीन ने लालू को हमेशा अपने बड़े भाई की तरह माना.”
दो दशक तक सिवान के बेताज बादशाह रहे शहाबुद्दीन
पूरे दो दशक तक शहाबुद्दीन सिवान के बेताज बादशाह रहे जो अपनी अदालत चलाया करते थे. उन्होंने डॉक्टरों की फीस 50 रुपये तय कर दी थी. उन्होंने सिवान में अपना आधार मज़बूत करने की कोशिश कर रहे सीपीआई (एमएल) से लड़ाई की और जिसे भी ज़रूरत पड़ी सुरक्षा दी.
सिवान के लोग उनसे प्यार करते थे. लोगों को उनसे डर भी लगता था. कहा जाता है कि जब वह सिवान में होते थे किसी की हिम्मत नहीं होती थी कि किसी दूसरी पार्टी का झंडा लहरा दे.
महताब आलम कहते हैं, “हमें उनकी ज़रूरत थी. आप वजह जानती हैं. पहले की तुलना में आज मुसलमानों का अपना नेता होना ज़्यादा ज़रूरी है.”
देखा जाए तो सिवान के खूंखार डॉन शहाबुद्दीन के उभार और पतन कई मायनों में हिंदुत्व के उभार से जुड़ा हुआ रहा है. राजनीति में शहाबुद्दीन का उदय उस दौर में हुआ जब, देश भर में बिखरे हिंदू वोट बैंक को मज़बूत करने के लिए 25 सितंबर 1990 को लालकृष्ण आडवाणी ने सोमनाथ से राम रथ यात्रा निकाली थी.
आडवाणी ने 1980 और 1990 के दशकों में हिंदू राष्ट्रवादी आंदोलन की अगुआई की थी. 1984 में विश्व हिंदू परिषद ने अयोध्या में राम मंदिर आंदोलन बनाने का आंदोलन छेड़ा था जो आख़िरकार 1992 में बाबरी मस्जिद के विध्वंस में बदल गया था.
उस दौर में हिंदू राष्ट्रवादी दलों पर आरोप लगा कि वे मुसलमानों को देशद्रोही बता कर हिंदुओं की गोलबंदी में लगे हैं. इन अभियानों की वजह से बिहार में भागलपुर समेत देश के कई हिस्सों में भयंकर सांप्रदायिक दंगे हुए. अक्टूबर, 1990 में लालू यादव ने बिहार के समस्तीपुर में लालकृष्ण आडवाणी को गिरफ़्तार करवा लिया.
जेल के अंदर से राजनीति की दुनिया में प्रवेश
उसी साल शहाबुद्दीन ने प्रतापपुर से स्वतंत्र उम्मीदवार के तौर पर चुनाव में जीत हासिल की. उस वक्त उनका चुनाव चिन्ह था- शेर. उस वक़्त वह सिर्फ़ 23 साल के थे और जेल में बंद थे. उनके समर्थकों ने उन्हें जेल से ही चुनाव लड़ने को कहा.
शहाबुद्दीन जीरादेई सीट से लड़े और कांग्रेस के त्रिभुवन सिंह को 378 वोटों से हराने में कामयाब रहे. नन्हे कहते हैं, “साहब उपाधि उन्हें विरासत में नहीं मिली थी. उनकी यह कमाई थी. आज उनकी पत्नी और बेटा अपने नाम के आगे शहाब जोड़ते हैं.”
जीरादेई सीट जीतने के बाद शहाबुद्दीन को जमानत मिल गई. देश के पहले राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद भी जीरादेई के ही रहने वाले थे. सिवान के डीएवीए कॉलेज में पढ़ने के समय से ही शहाबुद्दीन छात्र राजनीति में सक्रिय हो गए थे. इस कॉलेज में वह राजनीति विज्ञान के स्टूडेंट थे.
वह प्रतापपुर के रहने वाले थे. शहाबुद्दीन के बनाए सिवान इंजीनियरिंग एंड टेक्निकल इंस्टीट्यूट में क्लर्क के तौर पर काम करने वाले 49 साल के फिरोज खान उर्फ नन्हे को अभी भी विश्वकर्मा चौहान और शहाबुद्दीन के बीच लड़ाइयों की याद है.
नन्हे के मुताबिक विश्वकर्मा चौहान पड़ोस का ही रहने वाला था जो छोटा-मोटा गैंगस्टर था. चौहान लोगों से रंगदारी टैक्स वसूलता था और उन्हें धमकियां देता रहता था. वह अक्सर कॉलेज के स्टाफ और छात्रों को भी धमकियां देता था.
नन्हे बताते हैं, “शहाबुद्दीन उसके विरोध मे खड़े हो जाते थे.”
शहाबुद्दीन उन दिनों डीवीए कॉलेज के हॉस्टल में रहते थे और इंटरमीडिएट में पढ़ते थे. नन्हे आठवीं में. जल्दी ही नन्हे उनके अनुयायी बन गए. शहाबुद्दीन कोई ग़रीब परिवार से नहीं आए थे. शहाबुद्दीन के परिवार के पास सिवान शहर से दूर प्रतापपुर में काफ़ी बड़ा प्लॉट था.
यह क़रीब नौ किलोमीटर लंबा था. उन दिनों शहाबुद्दीन के लिए कैंपेनिंग करने वाले लोगों में नन्हे भी शामिल रहा करते थे. वह कहते हैं, “जब चुनाव लड़ने की बार आई तो प्रशासन की ओर से कहा गया कि शहाबुद्दीन की उम्र कम है. इस पर हमने सिवान में दंगा कर दिया था. हमने प्रशासन से पूछा कि अगर उनकी उम्र चुनाव लड़ने की नहीं थी तो फिर उन्होंने उन्हें पर्चा दाख़िल क्यों करने दिया.”
इस तरह जेल के अंदर से ही उनका राजनीति में प्रवेश हुआ.
उस समय तक अवध बिहारी चौधरी आरजेडी के उम्मीदवार के तौर पर दो बार सिवान सदर से जीत चुके थे. इसके बाद 1990 से शहाबुद्दीन यहाँ से चार बार विधायक और दो बार सांसद चुने गए.
साल 1995 के विधानसभा चुनाव में उन्हें सत्ताधारी जनता दल की ओर से टिकट दिया गया था. 1996 से 2004 तक उन्होंने चार बार लोकसभा का चुनाव जीता. लेकिन फिरौती के कई हाई प्रोफाइल मामलों, अपहरण और हत्याओं से जुड़े केस में नामज़द होने के बावजूद राजनीतिक संरक्षण की बदौलत वह जेल से अपना विशाल क्राइम सिंडिकेट चलाते रहे.
सेक्युलर-सांप्रदायिक राजनीति का टकराव और शहाबुद्दीन का उभार
उन दिनों सिवान के हर गली-कूचे में शहाबदुद्दीन के कटआउट लगे होते थे. उस समय के लोग याद करते हैं कि कैसे शहाबुद्दीन डॉक्टरों की फीस तय करते थे. साथ ही वह यह भी तय करते थे कि सिवान का एसपी और डीएम कौन होगा.
इतना ही नहीं प्रतापपुर आने वाले उनके मेहमानों को शहर के कौन से होटल फ्री में खाना खिलाएंगे, यह भी वही बताते थे. सिवान में एक तरह से उन्होंने अपनी एक अर्द्ध सरकारी व्यवस्था बना ली थी.
पीपल्स यूनियन फोर सिविल लिबर्टीज (PUCL) की 2001 की एक सरकारी रिपोर्ट बताती है कि आरजेडी सरकार ओर से उन्हें पूरी तरह संरक्षण मिला हुआ था. उनके ख़िलाफ़ क़ानूनी कार्रवाई लगभग असंभव थी. इसके बाद शहाबुद्दीन का कहा हुआ ही क़ानून बनने लगा.
इससे चारों ओर उनके अजेय होने का एक आभामंडल सा छा गया. रिपोर्ट में कहा गया गया, “चूंकि पुलिस ने शहाबुद्दीन की आपराधिक गतिविधियों से आंखें मूंद ली हैं उसे सिवान को अपनी जागीर की तरह इस्तेमाल करने की छूट दे दी है. इस वजह से उसकी धौंस चल रही है. शहाबुद्दीन का इतना आतंक है कि सिवान में कोई भी शख्स उन मामलों में उसके ख़िलाफ़ खड़ा नहीं होना चाहता, जिनमें उसे आरोपी बनाया गया है.”
जिन दो दशकों में हिंदू राष्ट्रवाद अपने उभार पर था, उनमें लालू यादव अगड़ी जातियों को सामना करने के अपने फॉर्मूले पर काम कर रहे थे. मुस्लिम और यादवों के गठबंधन के अपने फॉर्मूले की बदौलत वह 1990 में सत्ता हासिल कर सके.
इससे पहले 1989 में बिहार के भागलपुर में भयंकर सांप्रदायिक दंगे हुए थे. इनमें एक हजार से ज्यादा लोग मारे गए थे. इनमें से कई मुसलमान थे. मुसमलानों का कहना था कि कांग्रेस के मुख्यमंत्री सत्येंद्र नारायण सिन्हा राज्य में सांप्रदायिक माहौल को बिगड़ने से रोक नहीं पाए. बाद में यह दंगा लगभग भुला दिया गया. इन दंगों की याद बाद में 1984 के सिख दंगों और 1993 के दंगों में दब गई.
इस दौरान लालू यादव ने देश में आरक्षण विरोधी आंदोलन के ख़िलाफ़ एकजुटता पैदा करने पर ध्यान देने लगे. लेकिन इस बीच, पूरे देश में राम जन्मभूमि आंदोलन ने जोर पकड़ लिया. पीयूडीआर की एक रिपोर्ट के मुताबिक भागलपुर के कुख्यात दंगे में मारे गए लोगों में 93 फ़ीसदी मुसलमान थे.
इस सारी पृष्ठभूमि में राज्य की 17 फ़ीसदी मुस्लिम आबादी ने जेपी आंदोलन की उपज और सेक्युलर और सोशलिस्ट राजनीति के पैरोकार लालू में अपना संभावित नेता तलाशना शुरू कर दिया. लालू यादव को राज्य की 14 फीसदी यादव आबादी का समर्थन हासिल था. इस तरह एम-वाई (मुस्लिम यादव) फॉर्मूला उन्हें 2005 तक बिहार की सत्ता में टिकाए रखा.
दरअसल, आरजेडी सुप्रीम लालू यादव की छवि मुस्लिमों के बीच उस वक़्त मजबू़त हुई जब 1990 में उन्होंने राम मंदिर आंदोलन को तेज़ करने के लिए निकाली गई आडवाणी की रथ यात्रा रोक ली थी.
न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी में राजनीति शास्त्र के प्रोफेसर इंद्रजीत राय का कहना है कि दरअसल, ऊंची जातियों के लोग लालू के हाथों आडवाणी की रथ यात्रा को रोकने की घटना कभी पचा नहीं पाए.
वह कहते हैं, “लालू की भूमिका ऊंची जाति के लोगों के ख़िलाफ़ थी. लालू को इस तरह प्रोजेक्ट किया गया मानों वह सब कुछ हड़पने वाले नेता हों. उन्होंने आडवाणी की रथ यात्रा रोक दी और इसके लिए ऊंची जाति के लोगों ने उन्हें कभी माफ़ नहीं किया. बिहार की राजनीतिक संस्कृति धीरे-धीरे अपराध और राजनीति के गठजोड़ में समाती गई. और लालू ने इसकी विरासत अपने हाथ में ले ली.”
”शहाबुद्दीन को मिले संरक्षण ने इस सामाजिक गठजोड़ की कमज़ोरियों को उभार दिया. भागलपुर के दंगों की वजह से लालू ने मुस्लिमों को एक ऐसे समुदाय के तौर पर देखना शुरू कर दिया, जिसके अंदर कोई बँटवारा नहीं था. इसे उन्होंने एक अखंड समुदाय मान लिया और शहाबुद्दीन जैसे आभिजात्य मुसलमानों के साथ काम करना शुरू कर दिया. उस दौर में हिंदू राष्ट्रवाद का उभार शुरू हो चुका था और मुसलमान पीछे धकेले जा रहे थे. ऐसे में शहाबुद्दीन ने ख़ुद को मुसलमानों के नेताओं के तौर पर पेश किया.”
पिछले कई दशक से बिहार और यूपी राजनीति में बाहुबलियों का प्रवेश देखते आए हैं. यह दिलचस्प है कि ज़्यादातर बाहुबली और रॉबिनहुड की छवि वाले ये नेता ऊंची जातियों के रहे हैं. मसलन- अनंत सिंह, सूरजभान सिंह वगैरह.
राय कहते हैं, “इन परिस्थितियों के पीछे तीन चीज़ें काम कर रही थीं- एक, इसके पीछे एक पितृसत्तात्मक विचार था जिसमें कोई पुरुष संरक्षक अपने लोगों को सुरक्षा देता है. दूसरा पहलू जाति से जुड़ा है. इसमें माना जाता है कि ग़रीबों की रक्षा करना ऊंची जातियों का काम है. इसके अलावा इसमें उपनिवेशवाद का भी तत्व जुड़ा हुआ है. बिहार बंगाल प्रेजिडेंसी का हिस्सा हुआ करता था और यहां शासन जमींदारों के हाथ में था. किसानों के पास अपनी ज़मीन नहीं हुआ करती थी और बिहार में भू स्वामित्व के दुर्दांत उदाहरण के थे. यह बंगाल का अंदरूनी इलाक़ा था और यहाँ सबसे ख़राब ज़मीन थी.”
दरअसल, लालू उस दौर में राजनीति में आए जब मुसलमान बुरी तरह घिरे हुए थे.
राय कहते हैं, “मुस्लिमों के ख़िलाफ़ हिंसा के मामलों में यादवों को उनका बचाव करने वाले की तरह देखा जाने लगा.”
‘शहाबुद्दीन एक समझौता थे, जिसे लालू यादव को करना पड़ा’
प्रोफ़ेसर जैफ्री विट्सो का रिसर्च लोकतंत्र के आलोचनात्मक पुनर्विचार और उत्तर औपनिवेशिक राज्य पर केंद्रित है. उन्होंने बिहार में निचली जातियों की राजनीति की पड़ताल के ज़रिये इसे परखा है. ‘डेमोक्रेसी अगेंस्ट डिवलपमेंट’ नाम की किताब (यूनिवर्सिटी ऑफ शिकागो प्रेस से प्रकाशित) के लेखक प्रोफेसर जैफ्री कहते हैं कि ‘शहाबुद्दीन एक समझौता थे, जिसे लालू यादव को करना पड़ा.’
अमेरिका से फोन पर बातचीत में उन्होंने कहा, “जब आप एम-वाई फॉर्मूला की चीर-फाड़ करते हैं तो आपका सामना कई असुविधाजनक सचाइयों से होता है. सबसे पहली बात यह कि शहाबुद्दीन पहले एक माफिया डॉन थे उसके बाद राजनीतिक नेता. पहले उन्होंने अपना एक आधार बनाया और फिर इसके दम पर आगे बढ़े.”
विट्सो साल 2001 का पंचायत चुनाव देखने बिहार आए थे. वह कहते हैं, “यहां हवा ही कुछ दूसरी थी. माहौल बड़ा भारी था.”
कई मायनों में उस समय शहाबुद्दीन दूसरे माफिया डॉन से ज्यादा खतरनाक था. उनका नेटवर्क सिवान से बाहर भी फैला हुआ था.
वह कहते हैं, “वह सबसे बड़े मुस्लिम माफिया थे. पूरे सिवान पर उनका नियंत्रण था. सरकारी दफ्तर बिल्कुल समय से चलते थे. शहाबुद्दीन का भय आप महसूस कर सकते थे. गांवों में मैंने देखा कि उनका गठजोड़ जमींदारों से था. उन्होंने खूब पैसा बनाया था. दरअसल लालू ने एक शैतान से सौदेबाजी की थी. शहाबुद्दीन मुस्लिम ताकत का प्रतिनिधित्व करते थे. जो काफी कुछ मायने रखता था. लोग शहाबुद्दीन को प्यार करते थे. साथ ही उनसे डरते भी थे.”
सीपीआई (एमएल) और शहाबुद्दीन का टकराव
विट्सो उन दिनों को याद करते हुए कहते हैं, “सिवान की स्थिति बिहार के दूसरे इलाकों से अलग थी. यहां खाड़ी के देशों में कमाने गए लोगों का पैसा आता था. मर्द गले में सोने की चेन पहनते थे. लेकिन गांवों में भयंकर गरीबी थी. कई लोगों का कहना था कि शहाबुद्दीन जमींदारों को सीपीआई (एमएल) से संरक्षण देते थे, जो उन दिनों इन इलाकों में एक ताकत बन चुकी थी.”
सीपीआई-एमएल पोलित ब्यूरो के नंदकिशोर प्रसाद 1990 के दशक में सिवान में पार्टी का काम देखते थे. वह कहते हैं शहाबुद्दीन उस दौर में एक छोटे अपराधी थे लेकिन लालू यादव के संरक्षण में वह एक डॉन बन गए.
प्रसाद कहते हैं, “शहाबुद्दीन जब तक सिवान में रहे किसी दूसरी पार्टी का झंडा वहां नहीं फहराया जा सका. बीजेपी की कभी वहां दफ्तर खोलने की हिम्मत नहीं हुई. सिर्फ एक पार्टी उनसे टक्कर ले पाई और वह थी सीपीआई (एमएल). हम उसके आतंक के खिलाफ लड़ रहे थे. उन्होंने गरीबों के लिए ज्यादा कुछ नहीं किया. लेकिन हम गरीबों के हक में खड़े थे.”
साल 1997 में जब सिवान में सीपीआई (एमएल) के नेता चंद्रशेखर और श्याम नारायण यादव नुक्कड़ सभा कर रहे रहे थे उन्हें मार डाला गया. कहा गया कि शहाबुद्दीन के गुर्गों ने उन्हें मार डाला.
प्रसाद कहते हैं, “उन दिनों कहा जा रहा था कि चंद्रशेखर को शहाबुद्दीन ने नहीं मरवाया. उस समय तो वह जेल में थे. लेकिन इनमें से ज्यादातर बात मीडिया की फैलाई हुई थी.”
बिहार विधानसभा के पूर्व सदस्य अमरनाथ यादव और सीपीआई नेता शहाबुद्दीन के राज के खिलाफ खड़े होने के लिए जाने जाते हैं. यादव ने 1995 से 2000 और फिर 2005 से 2010 तक दरौली विधानसभा का प्रतिनिधित्व किया था.
वह कहते हैं, “हम जमींदारों से जमीन छीन कर भूमिहीनों में बांटते थे. यही हमारा आंदोलन था. सिवान उन दिनों बेहद खतरनाक जगह मानी जाती थी. वह बूथ कैप्चरिंग का जमाना था. लालू कहा करते थे के वे कम्यूनिस्टों को खत्म कर देंगे. सीपीआई (एमएल) और शहाबुद्दीन के बीच लड़ाई में 153 लोग मारे गए थे.”
लालू सामाजिक न्याय के लिए खड़े हुए थे और पिछड़े वर्गों के लोगों के नेता बन गए थे. लेकिन वह बिहार में सीपीआई-एमएल को नहीं देखना चाहते थे. एक वक्त तो उन्होंने कहा था कि कि वह सीपीआई-एमएल को खत्म करने के लिए जहन्नुम की ताकतों के साथ भी समझौता करने को तैयार हैं और उन्होंने यही किया. शहाबुद्दीन इसी सौदेबाजी का नतीजा थे. शहाबुद्दीन से सहानुभूति रखने वालों में से कई लोगों का ये मानना है कि वह राजनीतिक दलों और जमींदारों के प्यादे से ज्यादा कुछ नहीं थे. यही वजह है कि आरजेडी की ताकत खत्म होने के साथ ही शहाबुद्दीन का भी जलवा खत्म होने लगा.
‘अपराध और राजनीति के संगम से पैदा होते हैं शहाबुद्दीन जैसे नेता’
इस तरह शहाबुद्दीन और फिर आरजेडी की ढलान के साथ ही सिवान में बीजेपी का उभार शुरू हो गया. शहाबुद्दीन माफिया थे, यह कोई झूठ नहीं था. दरअसल वह एक बाहुबली थे जो नए उभरे राजनीतिक हालत में लालू यादव के समझौते के नतीजे के तौर पर सामने आए थे.
1990 के दशक तक देश के पहले राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद की जन्मस्थली सिवान शहाबुद्दीन के नाम का पर्याय बन गया था. यहां मुस्लिमों की आबादी 20 फीसदी है. इसके बाद यादवों का नंबर आता है.
रिटायर्ड आईपीएस अफसर मनोज नाथ ने अपने ब्लॉग में लिखा कि शहाबुद्दीन की मौत हो गई लेकिन जिस इको-सिस्टम ने उन्हें फैलाया वह अभी जिंदा है.
नाथ ने कई साल पहले एक अखबार में लिखे अपने एक लेख को उद्धृत किया है, “जैसे ही राजनीति और अपराध का गठजोड़ दिखने लगे, समझिए लोकतांत्रिक राजनीति अक्षम हो रही है. पिछले कुछ अरसे से अपराध राजनीति पर हावी होता जा रहा है. पहले अपराध छिप कर चलता था, एक विश्वासी और समर्पित वेश्या की तरह. वह उस क्षण की आपकी जरूरतों को शांत करके फिर किसी गुप्त श्रृंगार कक्ष में घुस जाती थी. आपसे अपने नापाक रिश्तों का कोई निशान वह नहीं छोड़ती थी. लेकिन जैसा कि अक्सर इस तरह के संबंधों में होता है. ढीठ, बेधड़क और भड़कीला पार्टनर दिनों दिन दुस्साहसी होता जाता है. और एक दिन वेश्या के उस प्रेमी के पास उससे अपनी शादी के ऐलान करने के अलावा कोई चारा नहीं बचता. जब उसकी हदें बढ़ने लगती हैं तो प्रेमी पृष्ठभूमि में चला जाता है. पार्टनर की महत्वाकांक्षा के लिए खुला मैदान छोड़ कर. और फिर अपराध और राजनीति के गठजोड़ से आधी रात के बच्चे पैदा होते हैं.”
नाथ कहते हैं शहाबुद्दीन अपराध और राजनीति के इसी संगम के सबसे चिर-परिचित संतान थे.
बिहार की भारी टकराव वाली राजनीति की दुनिया में रॉबिनहुड शब्द का इस्तेमाल अक्सर बाढ़ के अनंत सिंह जैसे अपराधी राजनेताओं के लिए इस्तेमाल होता आया है. ये यहां के ‘सामाजिक दस्यु या अपराधी’ वाले नैरेटिव में फिट हो जाते हैं. इनके सामाजिक प्रतिरोध को लोगों का भारी समर्थन मिलता है भले ही वह गैरकानूनी क्यों न हो.
एक समय था जब मोकामा के बाहुबली अनंत सिंह को बिहार का रॉबिनहुड कहा जाता था. 4 नवंबर 2012 में को जब बिहार को विशेष राज्य का दर्जा दिलाने के लिए मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने जनाधिकार रैली की थी तो उनमें लगे पोस्टरों में मोकामा के विधायक अनंत सिंह का चेहरा भी प्रमुख रूप से शामिल था. राज्य के ये बाहुबली स्वयंभू ‘छोटे सरकार’ थे और जिन्होंने 2005 और फिर 2010 में बाढ़ में नीतीश के लिए कैंपेनिंग की थी.
यह भी दिलचस्प है कि नीतीश खुद जंगल राज का खात्मा करने के वादे के साथ 2005 में सत्ता में आए थे..
चौड़ी हैट और काला चश्मा पहनने वाले अनंत सिंह अपने सरकारी बंगले में अजगर पाला करते थे और कभी-कभी विधानसभा में घोड़ागाड़ी से आते थे. सिंह उस आपराधिक-राजनीतिक गठजोड़ का हिस्सा थे, जिसके लिए बिहार कुख्यात है.
2015 में उन्होंने नीतीश की पार्टी से इस्तीफा दे दिया. इसकी उन्होंने कोई वजह नहीं बताई. अब तक वह चुनाव नहीं हारे हैं. ऐसी तमाम कहानियां हैं जिनमें कहा गया है कि अनंत सिंह खुलेआम पब्लिक में एके-47 लहराते और नाचने वाली लड़कियों के साथ ठुमके लगाते देखे गए. पिछले साल अनंत सिंह आरजेडी में शामिल हो गए.
बिहार के पूर्व डीजीपी अभयानंद के मुताबिक बिहार में कानून की प्रक्रिया का पालन करने की परंपरा कभी रही ही नहीं. यह काम सिर्फ उस वक्त हुआ था जब थोड़े समय के लिए जंगल राज खत्म करने और इन स्वयंभू रॉबिनहुडों को जेल में बंद करने का आदेश दिया गया था.
अभयानंद कहते हैं, “लोकतांत्रिक राज में सिर्फ एक रॉबिन हुड की इजाजत है. अगर कोई दूसरा रॉबिनहुड आ जाए तो समझिए कि आप लोकतांत्रिक राज्य में नहीं है. वह कहते हैं, चूंकि राजनीति फेल चुकी है इसलिए बाहुबली चुनाव जीतने के लिए खड़े हो जाते हैं.”
अभयानंद ने राज्य में 1959 का आर्म्स एक्ट लागू कर दिया था, जिसके तहत पुलिसकर्मी ही प्राथमिक गवाह होते हैं. इस वजह से अपराधियों के खिलाफ आरोप दाखिल करने फास्ट ट्रैक अदालतों में सुनवाई कर तेजी से न्याय दिलाया जा सका था. इसी प्रक्रिया के तहत शहाबुद्दीन को जेल भेजा गया था.
मौत के वक्त शहाबुद्दीन एक दोहरे हत्याकांड जेल की सजा भुगत रहे थे. हालांकि आखिरी वक्त तक उनके खिलाफ अपराध के 40 से अधिक मामले दर्ज थे. इनमें से एक मामला जेएनयू स्टूडेंट यूनियन के पूर्व अध्यक्ष चंद्रशेखर की गोली मार कर हत्या करने का भी था.
चंद्रशेखर को दिन-दहाड़े सिवान में गोली मार दी गई थी. इसके बाद शहाबुद्दीन के खिलाफ एक बिजनेसमैन के तीन बेटों को मार डालने का केस था. चंद्रशेखर की विधवा मां कौशल्या देवी अब जीवित नहीं हैं. लेकिन उन्होंने बेटे कि लिए इंसाफ एक लंबी जंग लड़ी.
उन्होंने अपनी बेटे की हत्या में शहाबुद्दीन को नामजद किया था. बिजनेसमैन चंदा बाबू के दो बेटों को तेजाब में नहला कर मार डाला गया था और तीसरे बेटे को भी इसके कुछ साल बाद गोली मार दी गई थी. कुछ महीनों पहले चंदा बाबू की भी मौत हो गई.
कुछ साल पहले जब चंदा बाबू और उनके बेटों ने अपनी जमीन और दुकान पर कब्जा करने की कोशिश में लगे गुंडों का विरोध किया था. इसके बाद शहाबुद्दीन के लोगों ने चंदा बाबू के दो बेटों को तेजाब में नहलाकर मार डाला था.
इस मामले में चश्मदीद तीसरे बेटे राजीव रोशन को भी 2014 में गोली मार दी गई थी.
नीतीश के ख़िलाफ़ बयान देना भारी पड़ा
साल 2016 में शहाबुद्दीन जमानत पर जेल से बाहर आ गए थे. इस साल नीतीश कुमार लालू यादव के साथ मिलकर चुनाव जीत चुके थे. 2016 में शहाबुद्दीन जब जेल से निकले तब तक लगभग 13 साल की सजा काट चुके थे.
लोग याद करते हैं कैसे वह अपने साथ जेल से दो बोरी किताबें ले गए थे. भागलपुर जेल से उनकी 200 गाड़ियों के काफिले को सिवान पहुंचने में 14 घंटे लगे क्योंकि लोग सिवान के सुल्तान की एक झलक पाने के लिए सड़कों पर उमड़ पड़े थे.
मनोज नाथ लिखते हैं, “भस्मासुर जब पैदा करने वाले के पीछे पड़ जाता है तो पैदा करने वाले को यह नहीं सूझता कि क्या करे. भस्मासुर किसी के प्रति जवाबदेह नहीं होता.”
साल 2005 से ही शहाबुद्दीन अलग-अलग केस में जेल में बंद रहे हैं. 2016 में जेल से निकलने के बाद उन्होंने जनता दल यूनाइटेड के नेता नीतीश कुमार के लिए कहा कि वह परिस्थितियों के सीएम हैं.
इस बयान के थोड़े दिनों बाद ही 15 फरवरी, 2017 को सुप्रीम कोर्ट ने शहाबुद्दीन की जमानत रद्द कर दी. उन्हें सिवान जेल से हाई सिक्योरिटी वाली तिहाड़ जेल में शिफ्ट कर दिया गया. 2016 में थोड़े समय के लिए शहाबुद्दीन जेल से बाहर हुए थे.
इससे पहले वह 2005 से जेल में ही बंद थे. 1998 में सीपीआई-एमएल कार्यकर्ता छोटेलाल गुप्ता की सिवान में अपहरण के बाद हत्या कर दी गई थी. इस मामले में 2007 में शहाबुद्दीन को उम्र कैद की सजा हुई.
2015 में दो भाइयों को तेजाब से नहला कर और उनकी गोली मार कर हत्या देने के मामले में शहाबुद्दीन को उम्र कैद की सजा मिली. तीसरे भाई की भी 2014 में गोली मार कर हत्या कर दी गई थी. वह अपने भाइयों की हत्या का गवाह था.
जिस दिन उसकी हत्या हुई उसके ठीक तीन दिन बाद उसे इस मामले में अदालत में गवाही देनी थी. 1996 में डिस्ट्रिक्ट पुलिस चीफ सिंघल पर प्राणघातक हमला हुआ था. इस मामले में भी शहाबुद्दीन के खिलाफ 2007 में दस साल सश्रम कारावास की सजा सुनाई गई.
शहाबुद्दीन की गैर मौजूदगी में सिवान बदल चुका है. लेकिन अब भी यहां उनका नाम डर पैदा करता है. हालांकि अब डॉक्टर अपने हिसाब से लोगों से फीस लेने लगे हैं और दुकानें भी देर तक तक खुली रहती हैं. प्रतापपुर जाने वालों को अब होटलों में मुफ्त खाना नहीं मिलता.
लेकिन दहशत की ये कहानियां यहां अब भी याद की जाती हैं. इनमें से एक खौफनाक कहानी शहाबुद्दीन और उनके लोगों और पुलिस के बीच हुई मुठभेड़ की है.
मार्च, 2001 में सिवान के एसपी बच्चू सिंह मीणा के नेतृत्व में जब पुलिस की एक टीम शहाबुद्दीन को प्रतापपुर स्थित उनके घर गिरफ्तार करने पहुंची तो उनके लोगों और पुलिस वालों के बीच काफी देर तक गोलीबारी हुई. शहाबुद्दीन इससे पहले एक स्थानीय पुलिस अफसर को पीट चुके थे.
इस मुठभेड़ में दो पुलिसकर्मी समेत दस लोग मारे गए थे. छापेमारी के दौरान उनके घर से एके-47 समेत हथियारों का बड़ा जखीरा बरामद हुआ था. अपने लोगों के मारे जाने के बाद शहाबुद्दीन ने एसपी की हत्या करने की कसम खाई थी.
शहाबुद्दीन के घर पर छापा मारने के एक दिन बाद ही राबड़ी देवी सरकार ने मीणा समेत जिले के सारी सीनियर अफसरों का तबादला कर दिया था.
‘वफ़ादारी की विरासत छोड़ गए हैं शहाबुद्दीन’
नन्हे और शहाबुद्दीन के दूसरे आदमियों की तरह उनका नेता कोई देवदूत नहीं था और न ही वह अपने धंधे में ईमानदार था. लेकिन उनके नेता के खिलाफ रेप का कोई केस नहीं था.
नन्हे कहते हैं, “शहाबुद्दीन के हाथों इंसाफ होता था. उन्होंने दुश्मन बना लिए. जब वह अपनी पंचायतों में मामले सुलझाने लगे तो वकील उनके दुश्मन बन गए क्योंकि उनका धंधा चौपट हो गया था. शहाबुद्दीन ऊंची जातियों के लोगों के लिए चीन की दीवार की तरह खड़े हो गए. जमींदार उन्हें आवाज देते थे और वह उनकी रक्षा के लिए तुरंत खड़े हो जाते थे.”
एक शख्स के तौर पर शहाबुद्दीन कैसे थे, इस बारे में ज्यादा कुछ पता नहीं है. अपने जीते जी उनकी जो छवि बनी, उसने उनकी जिंदगी को ढांप लिया. इसलिए किसी और दूसरी चीज की गुंजाइश ही नहीं बची.
लेकिन नन्हे का कहना है कि वह अक्सर जेल के अंदर पेड़ लगाया करते थे. उन्होंने ऐसी जेल भी बनवाई थी, जिनके कमरों में टाइल्स लगी थीं. अक्सर वह कहा करते थे कि जब समय आएगा तो जेल के इन कमरों में रहेंगे. कई बार नन्हे जेल के अंदर जाकर उनसे मिल आते थे.
वह कहते हैं, “वे अक्सर चौकी या जमीन पर सोया करते थे.”
नन्हे और महताब आलम जैसे लोगों का कहना है कि शहाबुद्दीन वफादारी की अपनी विरासत छोड़ गए हैं. वह कहते हैं, “सिवान की राजनीति बड़ी खतरनाक है. साहेब अपनी नजदीकियां किसी से छिपाते नहीं थे. उन्होंने लालू का साथ कभी नहीं छोड़ा. अब उनके परिवार को लोगों का प्यार हासिल करने के लिए कड़ी मेहनत करनी होगी. राजनीति अलग तरह का खेल है.”
ट्विटर पर जस्टिस फॉर शहाबुद्दीन जैसे हैशटेग हैं. लेकिन अब वे ट्रेंड नहीं कर रहे हैं. उस शख्स के मामले में जस्टिस शब्द इस्तेमाल करना थोड़ा अजीब लगता है, जो खुद कई मामलों में अभियुक्त और इससे भी ज्यादा मामलों में नामजद हो.
मौत की नींद सो चुका शख्स अपना बचाव नहीं कर सकता. शहाबुद्दीन सिवान के इतिहास का हिस्सा हैं. भले ही उनकी देह कहीं और दफन हो लेकिन उनकी कहानियां बिहार के इस सीमावर्ती शहर और इसके लोगों की ही हैं.
वे किसी दिन इस बात पर चर्चा कर सकते हैं कि उस साल मई महीने में जब एक दिन आसमान में बादल छितराए हुए थे. बादल के टुकड़ों में उमड़-घुमड़ रहे थे और हल्की बारिश हो रही थी तो ‘सिवान के सुल्तान’ इस दुनिया से रुखसत हो गए थे.
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