तानाशाहों को भी लोकतंत्र अच्छा लगता है, बशर्ते वो उनके हक में हो। दुनिया के दो सबसे बड़े तानाशाह हिटलर और मुसोलिनी किसी राजशाही की पैदाइश नहीं थे। वो सभी समाज के गर्भ से निकले तत्कालीन नायक थे। जनता उनके साथ थी। उन्होंने उसी के दम से ताज़ गिराए, तख्त उछाले और फिर संसदों में घुसकर कभी हल्ले के साथ तो कभी चुपके से हर संस्था पर काबू पा लिया। अपने देश के लोगों की महत्वाकांक्षाओं को हवा देकर उन्होंने उसे आग की तरह खूब भड़काया।उस आग में हाथ तापे और फिर जब वक्त का पहिया घूमा… सम्मोहन टूटा… तो दोनों उसी आग में पतंगे की तरह जलकर भस्म हो गए।

एक ने खुद को प्रेमिका के साथ गोली मार ली..और लाश का ठिकाना तक नहीं बचा..दूसरे को उसकी प्रेमिका समेत जान से मारकर लाश को चौराहे पर टांग दिया गया। कहने का मतलब इतना भर है कि तानाशाह कभी भी तानाशाह बनकर नहीं आता।उसके माथे पर भी ऐसा कुछ लिखा नहीं होता। वो अपार लोकप्रियता हासिल करने के बाद लोकतंत्र के घोड़े पर सवार हो राजपथ पर निकला करते हैं। चरम समर्थन तानाशाह का राजदंड होता है जिसके सहारे वो अजीब-अनोखे-नासमझी भरे-जानलेवा फैसले करता जाता है लेकिन सम्मोहित जनता उसका साथ देती है। पहलेपहल उससे सवाल नहीं होते, और उसके बाद वो सवालों की गुंजाइश नहीं छोड़ता। जिस दौर में राजनीति महत्वपूर्ण हो जाती है और राजनेता सबसे बड़े हीरो बन जाते हैं… ठीक उसी वक्त कलाकार अपने शेल में घुस जाते हैं। इक्का दुक्का अपनी प्रसिद्धि के दम पर विरोध उठाता भी है लेकिन सरकार के अनगिनत हाथ उसका गला घोंट ही देते हैं। पूरा युग गुज़रने के बाद जनता को याद आता है कि जब तराजू एक तरफ झुका हुआ था और कोई शिकवा तक करनेवाला नहीं था .. उस वक्त किसी अकेले आदमी ने खड़े होकर कहा था कि ये बेइमानी है।


उपरोक्त तस्वीर इटली के तानाशाह बेनिटो मुसोलिनी की वो तस्वीर है जो 9 मई 1936 को खींची गई। मुसोलिनी अपने शीर्ष पर था। रोम के ऐतिहासिक महल की बालकनी में खड़े होकर वो जनता का अभिवादन कर रहा है। भीड़ को देखकर आसानी से समझ मे आता है कि उसकी लोकप्रियता क्या रही होगी, अब इस तस्वीर को आज के संदर्भ में देखिए! सभी सवालों और संदेहों के जवाब आसानी से मिल जाएंगे…

 

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