अगर मानव इतिहास के सबसे बड़े आविष्कारों की बात करें, तो अव्वल नंबर पर आता है, पहिया. जिसने मानव जीवन को गति दी, और दूसरा बड़ा आविष्कार है कंप्यूटर. जिसने मानव सभ्यता को पूरी तरह बदल दिया. कंप्यूटर की वजह से ही आज दूर-दूर तक फैली मानवता एक सूत्र में बंध गई है. और कंप्यूटर की बदौलत ही आज इंसान चांद और मंगल ग्रह तक पहुंच गया है.

आज से 50 साल पहले अमरीकी स्पेस एजेंसी नासा ने 16 जुलाई, 1969 को चंद्रमा पर पहले सफल मानव अभियान अपोलो-11 को रवाना किया था. इस अमरीकी यान को चंद्रमा पर पहुंचने में चार दिन लगे थे.

20 जुलाई, 1969 को अंतरिक्ष यान चंद्रमा की सतह पर उतरा था. इस साल इंसान के चांद पर पहुंचने की पचासवीं सालगिरह पूरी दुनिया मना रही है. आज हम आप को इस मिशन के तकनीकी पहलू बताते हैं.

वो कंप्यूटर…

धरती से चांद तक पहुंचने में अंतरिक्ष यात्रियों की मदद की थी अपोलो गाइडेंस कंप्यूटर यानी AGC ने. ये एक छोटे सूटकेस के आकार का कंप्यूटर था. जिसमें एक अलग डिसप्ले और इनपुट पैनल था, जो कि अंतरिक्ष यान के कंसोल से जुड़ा था.

इसे किसी भी चीज़ को छोटा करने का अद्भुत नमूना माना जाता है. अपोलो गाइडेंस कंप्यूटर को अमरीका के मशहूर मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ़ टेक्नॉलोजी यानी एमआईटी ने तैयार किया था.

अपोलो गाइडेंस कंप्यूटर हज़ारों सिलिकॉन चिप और सर्किट से जुड़ा था. एमआईटी के इंजीनियरों ने ख़ास तौर से नासा के लिए इस कंप्यूटर को डिज़ाइन किया था. इस नई तकनीक के बाद ही अमरीका की मशहूर सिलिकॉन वैली तरक़्क़ी की राह पर चल निकली और आज का कंप्यूटर  वजूद में आया.

आज हम कोई भी स्मार्टफ़ोन इस्तेमाल करते हैं तो उसकी रैम 4, 6 या 8 जीबी तक होती है. लेकिन जिस कंप्यूटर की मदद से इंसान चांद पर पहुंचा उसकी मेमोरी अगर आपको पता चलेगी तो आपको सिर्फ़ हंसी आएगी. अपोलो गाइडेंट कंप्यूटर की रैम केवल 4 केबी थी.

ये मेमोरी 1980 के दशक में आए घरेलू कंप्यूटर सिन्क्लेयर ज़ेडएक्स और स्पेक्ट्रम या कोमोडोर 64 के बराबर थी. एजीसी का सॉफ़्टवेयर हार्ड-वायर्ड था और कॉइल में बंधा था, ताकि ये टूटने ना पाए.

इस कंप्यूटर के विकसित होने के बाद ही नासा ने अपनी ह्यूमन स्पेसफ़्लाइट, जिसका ओरिजनल नाम मैन्ड स्पेसक्राफ़्ट सेंटर था, के लिए पांच आईबीएम-360 कंप्यूटर ख़रीदे. ताकि इंसान को चांद तक ले जाने वाले अंतरिक्ष यान की स्पीड और उसकी सेहत पर नज़र रखी जा सके. इनके साथ कुछ कंप्यूटर स्टैंडबाय में भी रखे गए थे.

वॉकमैन और कैसेट

नासा में अपोलो-11 के फ़्लाइट डायरेक्टर गैरी ग्रिफ़िन अपने अनुभव साझा करते हुए कहते हैं कि जिस कंप्यूटर के साथ नील आर्मस्ट्रांग चंद्रमा की सतह पर पहुंचे थे, उसमें अलार्म भी फ़िट किए गए थे.

चांद पर पहुंचने के पांच मिनट बाद जैसे ही उन्होंने लूनर लैंडर पर इंजन ऑन किया 1202 और 1201 के बहुत से अलार्म उनके हेडसेट में बजने लगे. ना तो ख़ुद नील को इस अलार्म के बजने का मतलब पता था और ना ही धरती पर बैठे मिशन कंट्रोलर चार्ली डयूक को इसकी जानकारी थी.

अगर वो लोग टेंशन में आ जाते तो शायद इस मिशन को रद्द करना पड़ जाता. जबकि ह्यूस्टन में बैठे मिशन कंट्रोलर इस अलार्म का मतलब समझते थे. अलार्म बजने के साथ ही कंट्रोल रूम के सभी कंप्यूटर व्यस्त हो गए. कंसोल पर डेटा देखने के बाद सुकून से गाइंडेस अफ़सर स्टीव बेल्स ने मिशन पर आगे बढ़ने का इशारा कर दिया. इस मिशन को पूरा करने में एक बड़ी टीम दिन-रात काम कर रही थी.

इस मिशन की एक और दिलचस्प बात है जो शायद किसी को नहीं पता. आपको जानकर हैरानी होगी कि चांद की सतह पर पहुंचने वाले क्रू मेंबर अपने साथ सोनी कंपनी का वॉकमैन और पोर्टेबल कैसेट रिकॉर्डर भी ले गए थे.

हालांकि अंतरिक्ष यात्रियों को ये रिकॉर्डर उन्हें चांद पर पहुंचकर अनुभव रिकॉर्ड करने के लिए दिए गए थे. लेकिन वो अपने साथ पसंद के म्यूज़िक टेप भी ले गए थे. जो अंतरिक्ष यात्री दस साल के अनुभवी थे, उन्होंने हल्के-फुल्के संगीत कलेक्शन को चुना था.

वहीं चांद पर जाने वाले आख़िरी मिशन यानी अपोलो 17 कमांडर जीन सर्नन ने ग्लेन कैम्पबेल और फ़्रेंक सिनात्रा का म्यूज़िक कलेक्शन चुना था. रस्टी स्वीकार्ट का अपोलो मिशन 9 अंतरिक्ष में म्यूज़िक कैसेट ले जाने वाला पहला मिशन था. लेकिन ये कैसेट कक्षा में पहुंचने से पहले तक ही काम कर सकते हैं.

लूनर रोवर वाला मिशन

चांद पर होने वाली गतिविधयों समझने के लिए ऑर्बिट में सिर्फ़ दो स्पेसक्राफ़्ट काफ़ी नहीं थे. अपोलो 15 से पहले जितने मिशन थे, उनके दो ही हिस्से होते थे कमांड मॉड्यूल और लैंडर. लेकिन अपोलो 15 ऐसा पहला मिशन था जिसके साथ लूनर रोवर जोड़ा गया था. इन तजुर्बों का ही नतीजा था कि 36 किलो का एक और स्पेसक्राफ़्ट हेक्सागोनल सैटेलाइट अंतरिक्ष में छोड़ा गया था.

इसका काम था गुरूत्वाकर्षण पर डेटा भेजना, धरती के चुंबकीय क्षेत्र की माप भेजना और चार्ज पार्टिकल की जानकारी भेजना. इस सैटेलाइट ने ख़राब होने से 6 महीने पहले तक धरती पर डाटा भेजा था.

1972 में अपोलो 16 ने इसके जैसा ही एक और सैटेलाइट अंतरिक्ष में स्थापित किया था. लेकिन बदक़िस्मती से ये सैटेलाइट 6 हफ़्ते बाद ही चांद पर टूट कर बिखर गया. शायद इसकी वजह इसे लो ऑर्बिट में लॉन्च करना था.

अपोलो गाइडेंस कंप्यूटर अगर किसी मशीन को छोटा करने का शाहकार था, तो सैटेलाइट फ़िफ़्थ मून रॉकेट को कंट्रोल करने वाला कंप्यूटर अभी तक लॉन्च होने वाला सबसे बड़ा कंप्यूटर है. इसे रॉकेट के सबसे ऊपरी हिस्से में रिंग की शक्ल में फ़िट किया गया था.

इसके डिजिटल और एनालॉग कंप्यूटर भी काफ़ी बड़े थे. इस कंप्यूटर को आईबीएम ने जोड़ा किया था. जबकि अलाबामा में वॉर्नहर फ़ोन ब्राउन की टीम ने इसे डिज़ाइन किया था. इस कंप्यूटर को दूसरे विश्व युद्ध में इस्तेमाल होने वाले वी-2 मिसाइल की तर्ज़ पर तैयार किया गया था.

मिशन कंट्रोलर्स का मानना था कि अपने लॉन्च के दौरान जब अपोलो 12 बिजली गिरने की वजह से अटक गया था, तो रॉकेट के सर्कुलर वाले डिज़ाइन की बदौलत ही बचा जा सका था.