लाल बहादुर शास्त्री का जन्म 2 अक्टूबर, 1904 को मुगलसराय, उत्तर प्रदेश में ‘मुंशी शारदा प्रसाद श्रीवास्तव’ के यहां हुआ था। इनके पिता प्राथमिक विद्यालय में शिक्षक थे। ऐसे में सब उन्हें ‘मुंशी जी’ ही कहते थे। बाद में उन्होंने राजस्व विभाग में क्लर्क की नौकरी कर ली थी। लालबहादुर की मां का नाम ‘रामदुलारी’ था।
भारत में बहुत कम लोग ऐसे हुए हैं जिन्होंने समाज के बेहद साधारण वर्ग से अपने जीवन की शुरुआत कर देश के सबसे पड़े पद को प्राप्त किया.
चाहे रेल दुर्घटना के बाद उनका रेल मंत्री के पद से इस्तीफ़ा हो या 1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में उनका नेतृत्व या फिर उनका दिया ‘जय जवान जय किसान’ का नारा, लाल बहादुर शास्त्री ने सार्वजनिक जीवन में श्रेष्ठता के जो प्रतिमान स्थापित किए हैं, उसके बहुत कम उदाहरण मिलते हैं.
स्वतंत्रता संग्राम के दौरान लाला लाजपतराय ने सर्वेंट्स ऑफ़ इंडिया सोसाइटी की स्थापना की थी जिसका उद्देश्य ग़रीब पृष्ठभूमि से आने वाले स्वतंत्रता सेनानियों को आर्थिक सहायता प्रदान करवाना था. आर्थिक सहायता पाने वालों में लाल बहादुर शास्त्री भी थे.
उनको घर का ख़र्चा चलाने के लिए सोसाइटी की तरफ़ से 50 रुपए प्रति माह दिए जाते थे. एक बार उन्होंने जेल से अपनी पत्नी ललिता को पत्र लिखकर पूछा कि क्या उन्हें ये 50 रुपए समय से मिल रहे हैं और क्या ये घर का ख़र्च चलाने के लिए पर्याप्त हैं ?
ललिता शास्त्री ने तुरंत जवाब दिया कि ये राशि उनके लिए काफ़ी है. वो तो सिर्फ़ 40 रुपये ख़र्च कर रही हैं और हर महीने 10 रुपये बचा रही हैं.
लाल बहादुर शास्त्री ने तुरंत सर्वेंट्स ऑफ़ इंडिया सोसाइटी को पत्र लिखकर कहा कि उनके परिवार का गुज़ारा 40 रुपये में हो जा रहा है, इसलिए उनकी आर्थिक सहायता घटाकर 40 रुपए कर दी जाए और बाकी के 10 रुपए किसी और ज़रूरतमंद को दे दिए जाएं.
13 साल के बेटे के पैर छुए
शास्त्री जी के बेटे अनिल शास्त्री बताते हैं, “एक बार रात के भोजन के बाद उनके पिता ने उन्हें बुलाकर कहा कि मैं देख रहा हूँ कि आप अपने से बड़ों के पैर ढंग से नहीं छू रहे हैं. आप के हाथ उनके घुटनों तक जाते हैं और पैरों को नहीं छूते.
अनिल ने अपनी ग़लती नहीं मानी और कहा कि आपने शायद मेरे भाइयों को ऐसा करते हुए देखा होगा.
इस पर शास्त्री जी झुके और अपने 13 साल के बेटे के पैर छूकर बोले कि इस तरह से बड़ों के पैर छुए जाते हैं. उनका ये करना था कि अनिल रोने लगे. वो कहते हैं कि तब का दिन है और आज का दिन, मैं अपने बड़ों के पैर उसी तरह से छूता हूँ जैसे उन्होंने सिखाया था.
एम्स क्रॉसिंग पर गन्ने का रस
जब लालबहादुर शास्त्री भारत के गृह मंत्री थे, जाने-माने पत्रकार कुलदीप नैयर उनके प्रेस सचिव थे. कुलदीप याद करते हैं कि एक बार वो और शास्त्री जी महरोली से एक कार्यक्रम में भाग लेकर लौट रहे थे. एम्स के पास उन दिनों एक रेलवे क्रॉसिंग होती थी जो उस दिन बंद थी.
शास्त्री जी ने देखा कि बगल में गन्ने का रस निकाला जा रहा है. उन्होंने कहा कि जब तक फाटक खुलता है क्यों न गन्ने का रस पिया जाए. इससे पहले कि कुलदीप कुछ कहते वो ख़ुद दुकान पर गए और अपने साथ-साथ कुलदीप, सुरक्षाकर्मी और ड्राइवर के लिए गन्ने के रस का ऑर्डर किया.
दिलचस्प बात ये है कि किसी ने उन्हें पहचाना नहीं, यहाँ तक कि गन्ने का रस बेचनेवाले ने भी नहीं. अगर उसे थोड़ा बहुत शक़ हुआ भी होता तो वो ये सोच कर उसे दरकिनार कर देता कि भारत का गृह मंत्री उसकी दुकान पर गन्ने का रस पीने क्यों आएगा.
लोन लेकर कार ख़रीदी
शास्त्री जी के प्रधानमंत्री बनने तक उनका अपना घर तो क्या एक कार तक नहीं थी. एक बार उनके बच्चों ने उलाहना दिया कि अब आप भारत के प्रधानमंत्री हैं. अब हमारे पास अपनी कार होनी चाहिए.
उस ज़माने में एक फ़िएट कार 12,000 रुपए में आती थी. उन्होंने अपने एक सचिव से कहा कि ज़रा देखें कि उनके बैंक खाते में कितने रुपए हैं? उनका बैंक बैलेंस था मात्र 7,000 रुपए. अनिल याद करते हैं कि जब बच्चों को पता चला कि शास्त्री जी के पास कार ख़रीदने के लिए पर्याप्त पैसे नहीं हैं तो उन्होंने कहा कि कार मत ख़रीदिए.
लेकिन शास्त्री जी ने कहा कि वो बाक़ी के पैसे बैंक से लोन लेकर जुटाएंगे. उन्होंने पंजाब नेशनल बैंक से कार ख़रीदने के लिए 5,000 रुपए का लोन लिया. एक साल बाद लोन चुकाने से पहले ही उनका निधन हो गया.
उनके बाद प्रधानमंत्री बनीं इंदिरा गाँधी ने सरकार की तरफ़ से लोन माफ़ करने की पेशकश की लेकिन उनकी पत्नी ललिता शास्त्री ने इसे स्वीकार नहीं किया और उनकी मौत के चार साल बाद तक अपनी पेंशन से उस लोन को चुकाया.

अनिल बताते हैं कि जहाँ-जहाँ भी वो पोस्टिंग पर रहे, वो कार उनके साथ गई. ये कार अभी भी दिल्ली के लाल बहादुर शास्त्री मेमोरियल में रखी हुई है और दूर- दूर से लोग इसे देखने आते हैं.

जब शास्त्री शर्मसार हुए
कुलदीप नैयर कहते हैं कि एक बार रूस में लेनिनग्राद में शास्त्री बोलशोई थियेटर की स्वान लेक बैले प्रस्तुति देखते हुए बहुत असहज हो रहे थे.
मध्यांतर में उनकी बगल में बैठे हुए कुलदीप ने उनसे पूछा कि क्या वो बैले का आनंद ले रहे हैं तो शास्त्री ने बहुत भोलेपन से जवाब दिया कि उन्हें शर्म आ रही है क्योंकि नृत्यांगनाओं की टांगे नंगी हैं और अम्मा बगल में बैठी हुई हैं. वो अपनी पत्नी ललिता को अम्मा कहा करते थे.
बेटे का रिपोर्ट कार्ड ख़ुद लिया
साल 1964 में जब शास्त्री प्रधानमंत्री बने तो उनके बेटे अनिल शास्त्री दिल्ली के सेंट कोलंबस स्कूल में पढ़ रहे थे.
उस ज़माने में पैरेंट्स-टीचर मीटिंग नहीं हुआ करती थी. हाँ अभिभावकों को छात्र का रिपोर्ट कार्ड लेने के लिए ज़रूर बुलाया जाता था.
शास्त्री ने भी तय किया कि वो अपने बेटे का रिपोर्ट कार्ड लेने उनके स्कूल जाएंगे. स्कूल पहुंचने पर वो स्कूल के गेट पर ही उतर गए. हालांकि सिक्योरिटी गार्ड ने कहा कि वो कार को स्कूल के परिसर में ले आएं, लेकिन उन्होंने मना कर दिया.
अनिल याद करते हैं, ”मेरी कक्षा 11 बी पहले माले पर थी. वो ख़ुद चलकर मेरी कक्षा में गए. मेरे क्लास टीचर रेवेरेंड टाइनन उन्हें वहाँ देखकर हतप्रभ रह गए और बोले सर आपको रिपोर्ट कार्ड लेने यहाँ आने की ज़रूरत नहीं थी. आप किसी को भी भेज देते. शास्त्री का जवाब था, “मैं वही कर रहा हूँ जो मैं पिछले कई सालों से करता आया हूँ और आगे भी करता रहूँगा.”
रेवेनेंड टाइनन ने कहा, “लेकिन अब आप भारत के प्रधानमंत्री हैं.” शास्त्री जी मुस्कराए और बोले, “ब्रदर टाइनन मैं प्रधानमंत्री बनने के बाद भी नहीं बदला, लेकिन लगता है आप बदल गए हैं.”
परिवार में सबसे छोटा होने के कारण बालक लालबहादुर को परिवार वाले प्यार से ‘नन्हे’ कहकर ही बुलाया करते थे। जब नन्हे अठारह महीने के हुए तब दुर्भाग्य से उनके पिता का निधन हो गया। उसकी मां रामदुलारी अपने पिता हजारीलाल के घर मिर्जापुर चली गईं। कुछ समय बाद उसके नाना भी नहीं रहे। बिना पिता के बालक नन्हे की परवरिश करने में उसके मौसा रघुनाथ प्रसाद ने उसकी मां का बहुत सहयोग किया।
ननिहाल में रहते हुए उसने प्राथमिक शिक्षा ग्रहण की। उसके बाद की शिक्षा हरिश्चन्द्र हाई स्कूल और काशी विद्यापीठ में हुई। काशी विद्यापीठ से शास्त्री की उपाधि मिलते ही शास्त्री जी ने अनपे नाम के साथ जन्म से चला आ रहा जातिसूचक शब्द श्रीवास्तव हमेशा के लिए हटा दिया और अपने नाम के आगे शास्त्री लगा लिया।
इसके पश्चात ‘शास्त्री’ शब्द ‘लालबहादुर’ के नाम का पर्याय ही बन गया। बाद के दिनों में “मरो नहीं, मारो” का नारा लालबहादुर शास्त्री ने दिया जिसने एक क्रान्ति को पूरे देश में प्रचण्ड किया। उनका दिया हुआ एक और नारा ‘जय जवान-जय किसान’ तो आज भी लोगों की जुबान पर है।
भारत में ब्रिटिश सरकार के खिलाफ महात्मा गांधी द्वारा चलाए गए असहयोग आंदोलन के एक कार्यकर्ता लाल बहादुर थोड़े समय (1921) के लिए जेल गए। रिहा होने पर उन्होंने एक राष्ट्रवादी विश्वविद्यालय काशी विद्यापीठ (वर्तमान में महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ) में अध्ययन किया और स्नातकोत्तर शास्त्री (शास्त्रों का विद्वान) की उपाधि पाई। संस्कृत भाषा में स्नातक स्तर तक की शिक्षा प्राप्त करने के बाद वे भारत सेवक संघ से जुड़ गए और देशसेवा का व्रत लेते हुए यहीं से अपने राजनैतिक जीवन की शुरुआत की।
शास्त्रीजी सच्चे गांधीवादी थे जिन्होंने अपना सारा जीवन सादगी से बिताया और उसे गरीबों की सेवा में लगाया। भारतीय स्वाधीनता संग्राम के सभी महत्वपूर्ण कार्यक्रमों व आन्दोलनों में उनकी सक्रिय भागीदारी रही और उसके परिणामस्वरूप उन्हें कई बार जेलों में भी रहना पड़ा। स्वाधीनता संग्राम के जिन आन्दोलनों में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही उनमें 1921 का असहयोग आंदोलन, 1930 का दांडी मार्च तथा 1942 का भारत छोड़ो आन्दोलन उल्लेखनीय हैं।
शास्त्रीजी के राजनीतिक दिग्दर्शकों में पुरुषोत्तमदास टंडन और पण्डित गोविंद बल्लभ पंत के अतिरिक्त जवाहरलाल नेहरू भी शामिल थे। सबसे पहले 1929 में इलाहाबाद आने के बाद उन्होंने टण्डनजी के साथ भारत सेवक संघ की इलाहाबाद इकाई के सचिव के रूप में काम करना शुरू किया।
इलाहाबाद में रहते हुए ही नेहरूजी के साथ उनकी निकटता बढ़ी। इसके बाद तो शास्त्रीजी का कद निरंतर बढ़ता ही चला गया और एक के बाद एक सफलता की सीढियां चढ़ते हुए वह नेहरूजी के मंत्रिमंडल में गृहमंत्री के प्रमुख पद तक जा पहुंचे।
1961 में गृह मंत्री के प्रभावशाली पद पर नियुक्ति के बाद उन्हें एक कुशल मध्यस्थ के रूप में प्रतिष्ठा मिली। तीन साल बाद जवाहरलाल नेहरू के बीमार पड़ने पर उन्हें बिना किसी विभाग का मंत्री नियुक्त किया गया और नेहरू की मृत्यु के बाद जून 1964 में वह भारत के प्रधानमंत्री बने।
उन्होंने अपने प्रथम संवाददाता सम्मेलन में कहा था कि उनकी पहली प्राथमिकता खाद्यान्न मूल्यों को बढ़ने से रोकना है और वे ऐसा करने में सफल भी रहे। उनके क्रियाकलाप सैद्धांतिक न होकर पूरी तरह से व्यावहारिक और जनता की आवश्यकताओं के अनुरूप थी। निष्पक्ष रूप से देखा जाए तो शास्त्रीजी का शासन काल बेहद कठिन रहा।
भारत की आर्थिक समस्याओं से प्रभावी ढंग से न निपट पाने के कारण शास्त्री जी की आलोचना भी हुई,लेकिन जम्मू-कश्मीर के विवादित प्रांत पर पड़ोसी पाकिस्तान के साथ 1965 में हुए युद्ध में उनके द्वारा दिखाई गई दृढ़ता के लिए उनकी बहुत प्रशंसा हुई।
‘यॉर प्राइम मिनिस्टर इज़ डाइंग’
वर्ष 1966 में ताशकंद में भारत-पाकिस्तान समझौते पर दस्तख़त करने के बाद शास्त्री बहुत दबाव में थे. पाकिस्तान को हाजी पीर और ठिथवाल वापस कर देने के कारण उनकी भारत में काफ़ी आलोचना हो रही थी.
उन्होंने देर रात अपने घर दिल्ली फ़ोन मिलाया. कुलदीप नैयर बताते हैं, ”जैसे ही फ़ोन उठा, उन्होंने कहा अम्मा को फ़ोन दो. उनकी बड़ी बेटी फ़ोन पर आई और बोलीं अम्मा फ़ोन पर नहीं आएंगी. उन्होंने पूछा क्यों ? जवाब आया इसलिए क्योंकि आपने हाजी पीर और ठिथवाल पाकिस्तान को दे दिया. वो बहुत नाराज़ हैं. शास्त्री को इससे बहुत धक्का लगा. कहते हैं इसके बाद वो कमरे का चक्कर लगाते रहे. फिर उन्होंने अपने सचिव वैंकटरमन को फ़ोन कर भारत से आ रही प्रतिक्रियाएं जाननी चाही. वैंकटरमन ने उन्हें बताया कि तब तक दो बयान आए थे, एक अटल बिहारी वाजपेई का था और दूसरा कृष्ण मेनन का और दोनों ने ही उनके इस क़दम की आलोचना की थी.”
कुलदीप बताते हैं, ”उस समय भारत-पाकिस्तान समझौते की खुशी में ताशकंद होटल में पार्टी चल रही थी. मैं चूँकि शराब नहीं पीता था इसलिए अपने होटल के कमरे में आ गया और सोने की कोशिश करने लगा क्योंकि अगले दिन तड़के मुझे शास्त्री जी के साथ अफ़गानिस्तान के लिए रवाना होना था. मैंने सपने में देखा कि शास्त्रीजी का देहांत हो गया. फिर मेरे कमरे के दरवाज़े पर दस्तक हुई. जब बाहर आया तो एक वहाँ एक रूसी औरत खड़ी थी. बोलीं- यॉर प्राइम मिनिस्टर इज़ दाइंग.”
कुलदीप कहते हैं, ”मैंने जल्दी-जल्दी अपना कोट पहना और नीचे आ गया. जब मैं शास्त्री जी के डाचा में पहुंचा तो देखा बरामदे में रूसी प्रधानमंत्री कोसिगिन खड़े थे. उन्होंने मेरी तरफ़ देखकर इशारा किया कि शास्त्री जी नहीं रहे. जब मैं कमरे में पहुंचा तो देखा बहुत बड़ा कमरा था और उस कमरे में एक बहुत बड़ा पलंग था. उसके ऊपर एक बहुत छोटा सा आदमी नुक्ते की तरह सिमटा हुआ निर्जीव पड़ा था. रात ढ़ाई बजे के करीब जनरल अयूब आए. उन्होंने इज़हारे-अफ़सोस किया और कहा, “हियर लाइज़ अ पर्सन हू कुड हैव ब्रॉट इंडिया एंड पाकिस्तान टुगैदर”(यहाँ एक ऐसा आदमी लेटा हुआ है जो भारत और पाकिस्तान को साथ ला सकता था).
भारत का यह दुर्भाग्य ही रहा कि ताशकंद समझौते के बाद वह इस छोटे क़द के महान पुरुष के नेतृत्व से हमेशा-हमेशा के लिए वंचित हो गया. उन्हें 1966 में मरणोपरांत भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से नवाज़ा गया और अली सरदार जाफ़री ने उनकी आख़िरी उपलब्धि के सम्मान में एक नज़्म लिखी-
मनाओ जश्ने मोहब्बत कि ख़ून की बू न रही
बरस के खुल गए बारूद के सियाह बादल
बुझी-बुझी सी है जंगों की आख़िरी बिजली
महक रही है गुलाबों से ताशकंद की शाम
ख़ुदा करे कि शबनम यूँ ही बरसती रहे
ज़मीं हमेशा लहू के लिए तरसती रहे.