महात्मा गांधी की ज़िंदगी एक खुली किताब की तरह थी. बहुत सारी चीज़ें उसमें होती रहती थीं और बहुत सारी चीज़ें लोगों की नज़र में रहती थीं.
इसलिए उनसे कोई काम छिपाकर करना या खुद गांधी जी का कोई काम छिपकर करना, बिना किसी को इत्तीला किए करना, ये मुमकिन था ही नहीं.
ये गांधी जी की जो नीति थी, उसके हिसाब से बिलकुल ठीक था. उनके ऊपर छह बार जानलेना हमले हुए.

पहला हमला 1934 में पुणे में हुआ था.
जब एक समारोह में उनको जाना था, दो गाड़ियां आईं, लगभग एक जैसी दिखने वाली. एक में आयोजक थे और दूसरे में कस्तूरबा और महात्मा गांधी यात्रा करने वाले थे.
जो आयोजक थे, जो लेने आए थे, उनकी कार निकल गई और बीच में रेलवे फाटक पड़ता था. महात्मा गांधी की कार वहां रुक गई.
तभी एक धमाका हुआ, जो कार आगे निकली, उसके परखच्चे उड़ गए. महात्मा गांधी उस हमले से बच गए, क्योंकि ट्रेन आने में देरी हुई. ये साल 1934 की बात है.

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पंचगनी और मुंबई में हमला:
साल 1944 में आग़ा ख़ां पैलेस से रिहाई के बाद गांधी पंचगनी जाकर रुके थे, वहां कुछ लोग उनके ख़िलाफ़ प्रदर्शन कर रहे थे.
गांधी ने कोशिश की कि उनसे बात की जाए, उनको समझाया जाए, उनकी नाराज़गी समझी जाए कि वो क्यों ग़ुस्सा हैं?
लेकिन उनमें से कोई बात करने को राज़ी नहीं था और आख़िर में एक आदमी छूरा लेकर दौड़ पड़ा, उसको पकड़ लिया गया. और इसमें भी कुछ हुआ नहीं.
साल 1944 में ही पंचगनी के बाद गांधी और जिन्ना की वार्ता बंबई में होने वाली थी.
और कुछ लोग जैसे मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा के लोग इससे नाराज़ थे कि गांधी और जिन्ना की मुलाकात का कोई मतलब नहीं है और ये मुलाकात नहीं होनी चाहिए.
वहां भी गांधी पर हमले की कोशिश हुई, वो भी नाकाम रही.

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चंपारण में दो बार कोशिश हुई:
साल 1946 में नेरूल के पास गांधी जिस रेलगाड़ी से यात्रा कर रहे थे, उसकी पटरियां उखाड़ दी गईं और ट्रेन उलट गई, इंजन कहीं जाकर टकरा गया.
साल 1948 में जाहिर है कि दो बार हमले हुए. पहली बार तो जब मदनलाल बम फोड़ना चाहते थे, वो फूटा नहीं और लोग पकड़े गए.
छठी बार का किस्सा ये है कि नाथूराम गोडसे ने 30 जनवरी, 1948 को गोली चलाई और महात्मा गांधी की जान चली गई. गांधी की जान लेने के दो और प्रयास किए गए.
वो दोनों प्रयास बहुत रोचक हैं, दोनों के दोनों चंपारण में हुए. साल 1917 में महात्मा गांधी मोतिहारी में थे.
मोतिहारी में सबसे बड़ी नील मिल के मैनेजर इरविन ने गांधी को बातचीत के लिए बुलाया. इरविन मोतिहारी की सभी नील फ़ैक्ट्रियों के मैनेजरों के नेता थे.

बत्तख मियां का किस्सा:
इरविन ने सोचा कि जिस आदमी ने उनकी नाक में दम कर रखा है, अगर इस बातचीत के दौरान उन्हें खाने-पीने की किसी चीज़ में ज़हर दे दिया जाए.
ऐसा ज़हर जिसका असर थोड़ी देर बाद होता हो तो न उनके ऊपर आंच आएगी और गांधी की जान भी चली जाएगी.
ये बात इरविन ने अपने खानसामे बत्तख मियां अंसारी को बताई गई. बत्तख मियां से कहा गया कि वो ट्रे लेकर गांधी के पास जाएंगे.
बत्तख मियां का छोटा सा परिवार था, वे छोटी जोत के किसान थे. नौकरी करते थे. उससे काम चलता था. उन्होंने मना नहीं किया. वे ट्रे लेकर गांधी के पास चले गए.
लेकिन जब वे गांधी जी के पास पहुंचे तो बत्तख मियां की हिम्मत नहीं हुई कि वे ट्रे गांधी के सामने रख देते.

देश का इतिहास क्या होता?
वो खड़े रहे ट्रे लेकर, गांधी ने उन्हें सिर उठाकर देखा, तो बत्तख मियां रोने लगे और सारी बात खुल गई. ये किस्सा महात्मा गांधी की जीवनी में कहीं नहीं है.
चंपारण का सबसे प्रामाणिक माना जाने वाला बाबू राजेंद्र प्रसाद की किताब में कहीं नहीं है, किसी और हवाले से इसका जिक्र नहीं है.
लेकिन लोक स्मृति में बत्तख मियां अंसारी काफी मशहूर आदमी हैं और ये कहा जाता है कि वो न तो इस देश का इतिहास क्या होता.
बत्तख मियां का कोई नामलेवा ही नहीं बचा था, उनको जेल हो गई, उनकी ज़मीनें नीलाम हो गईं, सबकुछ हो गया.
साल 1957 में राजेंद्र प्रसाद राष्ट्रपति थे, वो मोतिहारी होते हुए नरकटियागंज जाना था.

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राजेंद्र बाबू ने पहचाना:
मोतिहारी में एक जनसभा में उन्होंने भाषण दिया, और भाषण देते समय उन्होंने दूर खड़े एक आदमी को देखा. राजेंद्र बाबू को लगा कि वे उसे पहचानते हैं.
राजेंद्र बाबू ने वहीं से आवाज़ लगाई कि बत्तख भाई कैसे हो? बत्तख मियां को स्टेज पर बुलाया गया, ये किस्सा लोगों को राजेंद्र बाबू ने बताया और उनको अपने साथ ले आए.
बाद में बत्तख मियां के बेटे जान मियां अंसारी को उन्होंने राष्ट्रपति भवन में बुलाकर रखा.
कुछ दिनों के लिए आमंत्रित किया और साथ में राष्ट्रपति भवन ने बिहार सरकार को खत लिखा कि चूंकि इनकी ज़मीनें चली गई हैं, इनको 35 एकड़ ज़मीन मुहैया कराई जाए.
ये बात 62 साल पुरानी है. वो ज़मीन बत्तख मियां के खानदान को आजतक नहीं मिली है.

अंग्रेज़ की नील कोठी पर…
दूसरा एक और रोचक किस्सा है कि जब ये कोशिश नाकाम हो गई, गांधी बच गए तो एक दूसरे अंग्रेज़ मिल मालिक को बहुत गुस्सा आया.
उसने कहा कि गांधी अकेले मिल जाए तो मैं उन्हें गोली मार दूंगा. ये बात गांधी जी तक पहुंची. अगली सुबह. महात्मा उसी के इलाके में थे.
गांधी सुबह सुबह उठकर अपनी सोंटी लिए हुए उस अंग्रेज़ की नील कोठी पर पहुंच गए.
और उन्होंने वहां जो चौकीदार था, उससे कहा कि बता दो कि मैं आ गया हूं और अकेला हूं. कोठी का दरवाज़ा नहीं खुला और वो अंग्रेज़ बाहर नहीं आए.

… और अब आते हैं उस दिन जब गाँधी जी की हत्या कर दी गई! “?”:

 शुक्रवार 30 जनवरी 1948 की शुरुआत एक आम दिन की तरह
हुई. हमेशा की तरह महात्मा गांधी तड़के साढ़े तीन बजे उठे.
प्रार्थना की, दो घंटे अपनी डेस्क पर कांग्रेस की नई
ज़िम्मेदारियों के मसौदे पर काम किया और इससे पहले कि दूसरे लोग उठ पाते, छह बजे फिर सोने चले गए.
काम करने के दौरान वह अपनी सहयोगियों आभा और मनु का बनाया नींबू और शहद का गरम पेय और मीठा नींबू पानी पीते रहे.
दोबारा सोकर आठ बजे उठे. दिन के अख़बारों पर नज़र दौड़ाई और फिर ब्रजकृष्ण ने तेल से उनकी
मालिश की. नहाने के बाद उन्होंने बकरी का दूध, उबली
सब्ज़ियां, टमाटर और मूली खाई और संतरे का रस भी पिया.
शहर के दूसरे कोने में पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन के वेटिंग रूम में नाथूराम गोडसे, नारायण आप्टे और विष्णु करकरे अब भी गहरी नींद में थे.
डरबन के उनके पुराने साथी रुस्तम सोराबजी सपरिवार गांधी से मिलने आए. इसके बाद रोज़ की तरह वह दिल्ली के मुस्लिम नेताओं
से मिले. उनसे बोले, ”मैं आप लोगों की सहमति के बग़ैर वर्धा नहीं जा सकता.”
गांधी जी के नज़दीकी सुधीर घोष और उनके सचिव प्यारेलाल ने नेहरू और पटेल के बीच मतभेदों पर लंदन टाइम्स में छपी एक टिप्पणी पर उनकी राय मांगी.
इस पर गांधी ने कहा कि वह यह मामला पटेल के सामने उठाएंगे जो चार बजे उनसे मिलने आ रहे हैं और फिर वह नेहरू से भी बात करेंगे
जिनसे शाम सात बजे उनकी मुलाक़ात तय थी.
उधर, बिरला हाउस के लिए निकलने से पहले नाथूराम गोडसे ने कहा कि उनका मूंगफली खाने को जी चाह रहा है. आप्टे उनके लिए
मूंगफली ढूंढने निकले लेकिन थोड़ी देर बाद आकर बोले- ”पूरी दिल्ली में कहीं भी मूंगफली नहीं मिल रही. क्या काजू या
बादाम से काम चलेगा?”
लेकिन गोडसे को सिर्फ़ मूंगफली ही चाहिए थी. आप्टे फिर बाहर निकले और इस बार मूंगफली का बड़ा लिफ़ाफ़ा लेकर वापस लौटे.
गोडसे मूंगफलियों पर टूट पड़े. तभी आप्टे ने कहा कि अब चलने का समय हो गया है.
चार बजे वल्लभभाई पटेल अपनी पुत्री मनीबेन के साथ गांधी से मिलने पहुंचे और प्रार्थना के समय यानी शाम पांच बजे के बाद तक उनसे मंत्रणा करते रहे.
सवा चार बजे गोडसे और उनके साथियों ने कनॉट प्लेस के लिए एक तांगा किया. वहां से फिर उन्होंने दूसरा तांगा किया और बिरला हाउस से दो सौ गज पहले उतर गए.
उधर पटेल के साथ बातचीत के दौरान गांधी चरखा चलाते रहे और आभा का परोसा शाम का खाना बकरी का दूध, कच्ची गाजर, उबली सब्ज़ियां और तीन संतरे खाते रहे.
आभा को मालूम था कि गांधी को प्रार्थना सभा में देरी से
पहुँचना बिल्कुल पसंद नहीं था. वह परेशान हुई, पटेल को टोकने की उनकी हिम्मत नहीं हुई, आख़िरकार वह भारत के लौह पुरुष थे. उनकी
यह भी हिम्मत नहीं हुई कि वह गांधी को याद दिला सकें कि उन्हें देर हो रही है.
बहरहाल उन्होंने गांधी की जेब घड़ी उठाई और धीरे से हिलाकर
गांधी को याद दिलाने की कोशिश की कि उन्हें देर हो रही है.
अंतत: मणिबेन ने हस्तक्षेप किया और गांधी जब प्रार्थना सभा में जाने के लिए उठे तो पांच बज कर 10 मिनट होने को आए थे.
गांधी ने तुरंत अपनी चप्पल पहनी और अपना बायां हाथ मनु और दायां हाथ आभा के कंधे पर डालकर सभा की ओर बढ़ निकले.
रास्ते में उन्होंने आभा से मज़ाक किया.
गाजरों का ज़िक्र करते हुए उन्होंने कहा कि आज तुमने मुझे
मवेशियों का खाना दिया. आभा ने जवाब दिया, ”लेकिन बा
इसको घोड़े का खाना कहा करती थीं.” गांधी बोले, ”मेरी
दरियादिली देखिए कि मैं उसका आनंद उठा रहा हूँ जिसकी कोई परवाह नहीं करता.”
आभा हँसी लेकिन उलाहना देने से भी नहीं चूकीं, ”आज आपकी घड़ी सोच रही होगी कि उसको नज़रअंदाज़ किया जा रहा है.”
गांधी बोले, ”मैं अपनी घड़ी की तरफ़ क्यों देखूं.” फिर गांधी गंभीर हो गए, ”तुम्हारी वजह से मुझे 10 मिनट की देरी हो गई है. नर्स का
यह कर्तव्य होता है कि वह अपना काम करे चाहे वहां ईश्वर भी
क्यों न मौजूद हो. प्रार्थना सभा में एक मिनट की देरी से भी मुझे चिढ़ है.”
यह बात करते-करते गांधी प्रार्थना स्थल तक पहुँच चुके थे. दोनों बालिकाओं के कंधों से हाथ हटाकर गांधी ने लोगों के अभिवादन के जवाब में उन्हें जोड़ लिया.
बाईं तरफ से नाथूराम गोडसे उनकी तरफ झुका और मनु को लगा कि वह गांधी के पैर छूने की कोशिश कर रहा है. आभा ने चिढ़कर कहा
कि उन्हें पहले ही देर हो चुकी है, उनके रास्ते में व्यवधान न उत्पन्न किया जाए. लेकिन गोडसे ने मनु को धक्का दिया और उनके हाथ से माला और पुस्तक नीचे गिर गई.
वह उन्हें उठाने के लिए नीचे झुकीं तभी गोडसे ने पिस्टल निकाल ली और एक के बाद एक तीन गोलियां गांधीजी के सीने और पेट में उतार दीं.
उनके मुंह से निकला, “राम…..रा…..म.” और उनका जीवनहीन शरीर नीचे की तरफ़ गिरने लगा.
आभा ने गिरते हुए गांधी के सिर को अपने हाथों का सहारा
दिया. बाद में नाथूराम गोडसे ने अपने भाई गोपाल गोडसे को
बताया कि दो लड़कियों को गांधी के सामने पाकर वह थोड़ा
परेशान हुए थे.
उन्होंने बताया था, ”फ़ायर करने के बाद मैंने कसकर पिस्टल को पकड़े हुए अपने हाथ को ऊपर उठाए रखा और पुलिस….पुलिस
चिल्लाने लगा. मैं चाहता था कि कोई यह देखे कि यह योजना
बनाकर और जानबूझकर किया गया काम था. मैंने आवेश में आकर ऐसा नहीं किया था. मैं यह भी नहीं चाहता था कि कोई कहे कि मैंने घटनास्थल से भागने या पिस्टल फेंकने की कोशिश की थी.
लेकिन यकायक सब चीज़ें जैसे रुक सी गईं और कम से कम एक मिनट तक कोई इंसान मेरे पास तक नहीं फटका.’
नाथूराम को जैसे ही पकड़ा गया वहाँ मौजूद माली रघुनाथ ने अपने खुरपे से नाथूराम के सिर पर वार किया जिससे उनके सिर से ख़ून
निकलने लगा. लेकिन गोपाल गोडसे ने अपनी किताब ‘गांधी वध और मैं’ में इसका खंडन किया. बकौल उनके पकड़े जाने के कुछ मिनटों
बाद किसी ने छड़ी से नाथूराम के सिर पर वार किया था, जिससे उनके सिर से ख़ून बहने लगा था.
गांधी की हत्या के कुछ मिनटों के भीतर वायसरॉय लॉर्ड
माउंटबेटन वहां पहुंच गए. किसी ने गांधी का स्टील रिम का चश्मा उतार दिया था. मोमबत्ती की रोशनी में गांधी के निष्प्राण
शरीर को बिना चश्मे के देख माउंटबेटन उन्हें पहचान ही नहीं पाए.
किसी ने माउंटबेटन के हाथों में गुलाब की कुछ पंखुड़ियाँ पकड़ा दीं. लगभग शून्य में ताकते हुए माउंटबेटन ने वो पंखुड़ियां गांधी के
पार्थिव शरीर पर गिरा दीं. यह भारत के आख़िरी वायसराय की
उस व्यक्ति को अंतिम श्रद्धांजलि थी जिसने उनकी परदादी के
साम्राज्य का अंत किया था.
मनु ने गांधी का सिर अपनी गोद में लिया हुआ था और उस माथे को सहला रही थीं जिससे मानवता के हक़ में कई मौलिक विचार फूटे थे.
बर्नाड शॉ ने गांधी की मौत पर कहा, ”यह दिखाता है कि
अच्छा होना कितना ख़तरनाक होता है.”
दक्षिण अफ़्रीका से गांधी के धुर विरोधी फ़ील्ड मार्शल जैन
स्मट्स ने कहा, ”हमारे बीच का राजकुमार नहीं रहा.”
किंग जॉर्ज षष्टम ने संदेश भेजा, ”गांधी की मौत से भारत ही नहीं संपूर्ण मानवता का नुक़सान हुआ है.”
सबसे भावुक संदेश पाकिस्तान से मियां इफ़्तिखारुद्दीन की तरफ़ से आया, ”पिछले महीनों, हममें से हर एक जिसने मासूम मर्दों, औरतों
और बच्चों के ख़िलाफ़ अपने हाथ उठाए हैं या ऐसी हरकत का समर्थन किया है, गांधी की मौत का हिस्सेदार है.”
मोहम्मद अली जिन्ना ने अपने शोक संदेश में कहा, ”वह हिंदू समुदाय के महानतम लोगों में से एक थे.”
जब जिन्ना के एक साथी ने उन्हें समझाने की कोशिश की कि
गांधी का योगदान एक समुदाय से कहीं ऊपर उठकर था, जिन्ना अपनी बात पर अड़े रहे और बोले, ”देट इज़ वॉट ही वाज़- अ ग्रेट हिंदू.”
जब गांधी के पार्थिव शरीर को अग्नि दी जी रही थी, मनु ने
अपना चेहरा सरदार पटेल की गोद में रख दिया और रोती चली गईं. जब उन्होंने अपना चेहरा उठाया तो उन्होंने महसूस किया कि
सरदार अचानक बुज़ुर्ग हो चले हैं.
गांधीजी वो शख्शियत जिन्होंने भारत देश को आजादी दिलाई। अहिंसा के पथ पर चलकर बड़ी से बड़ी बाधाओं को पार करने वाले राष्ट्रपिता ने ब्रिटिश सरकार के समक्ष अपने मजबूत इरादों के दम पर ही नामुमकिन को मुमकिन कर दिखाया। स्वतंत्रता पाने के बाद बापू में जीने की इच्छा ही खत्म हो गई थी। देश के माहौल ने उनके मन को झकझोर कर रख दिया था जिससे वे बेहद दुखी थे।
‘ 68 साल पहले आज ही के दिन अहिंसा की प्रतिमूर्ति हिंसा की शिकार हुई थी। 30 जनवरी, 1948 का वह दिन भारत को अंग्रेजों की गुलामी से मुक्ति दिलाने के महासंग्राम के महानायक मोहनदास करमचंद गांधी का अंतिम दिन था और मुख से निकला हे राम’ अंतिम शब्द था। गांधीजी ने अपने जीवन के 12 हजार 75 दिन स्वतंत्रता संग्राम में लगाए, परंतु उन्हें आजादी का सुकून मात्र 168 दिनों का ही मिला।

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