नाथुराम गोडसे को कौन नहीं जानता जो महात्मा गांधी का हत्यारा है इसके बावजूद कुछ लोग इसकी पूजा करते हैं। मगर ठीक 31 साल पहले जब गांधी एक अंग्रेज़ को कोठी में डिनर कर रहे थे तो बत्तख मियां के हाथ में सूप का कटोरा था, सूप में जहर मिला हुआ था। बत्तख मियां ने सूप का कटोरा तो गांधी को थमा दिया, मगर साथ ही यह भी कह दिया की इसे न पिये, इसमें जहर मिला है।
गांधी की मौत या जन्म पर लोग उनके याद करते हैं साथ ही गोडसे को भी हत्यारा के रूप में याद किया जाता है, मगर बत्तख मियां लगभग गुमनाम ही हैं। इस लोकोक्ति के बावजूद की ‘बचाने वाला मारने वाले से बड़ा होता है’। मारने वाले का नाम हर किसी को याद है, बचाने वाले को कम लोग ही जानते हैं। इनके बारे में मुझे पिछले दिनों पढ़ने का मौका मिला, और तबसे सोचने लगा कि उस इंसान के बारे में और जानूँ और दुनिया को बताऊँ…….
बत्तख मियां, जैसा नाम से ही ज़ाहिर है, मुस्लिम थे।
मोतीहारी नील कोठी में खानसामा का काम करते थे। यह 1917 की बात है। उन दिनों गांधी नील किसानों की परेशानीयों को समझने के लिए चंपारण के इलाके में भटक रहे थे। एक रोज़ मोतीहारी कोठी के मैनेजर ईर्वीन से मिलने पहुँच गए। उन दिनों भले ही देश के लिए गाँधी बहुत बड़े नेता नहीं थे, चंपारण के लोगों की निगाह में वे किसी मसीहा की छा गए थे। नील किसानों को लगता था की वे उनके इलाक़े से निलहे अंग्रेज़ो को भगाकर ही दम लेंगे और यह बात नील प्लांटरों को खटकती थी। वे हर हाल में गाँधी को चंपारण से भगाना चाहते थे।
वार्ता के उद्देश्य से नील के खेतों के तत्कालीन अंग्रेज मैनेजर इरविन ने मोतिहारी में उन्हें रात्रिभोज पर आमंत्रित किया। तब बतख मियां इरविन के रसोईया हुआ करते थे। इरविन ने गांधी की हत्या के लिए बतख मियां को जहर मिला दूध का गिलास देने का आदेश दिया। निलहे किसानों की दुर्दशा से व्यथित बतख मियां बतख मियां को गांधी में उम्मीद की किरण नज़र आ रही थी।
उनकी अंतरात्मा को इरविन का यह आदेश कबूल नहीं हुआ। उन्होंने दूध का ग्लास देते हुए राजेन्द्र प्रसाद के कानों में यह बात डाल दी। गांधी की जान तो बच गई लेकिन बतख मियां और उनके परिवार को बाद में इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ी।
गांधी के जाने के बाद अंग्रेजों ने न केवल बत्तख मियां को बेरहमी से पीटा और सलाखों के पीछे डाला, बल्कि उनके छोटे से घर को ध्वस्त कर कब्रिस्तान बना दिया। देश की आज़ादी के बाद 1950 में मोतिहारी यात्रा के क्रम में देश के पहले राष्ट्रपति बने डॉ राजेन्द्र प्रसाद ने बतख मियां की खोज खबर ली और प्रशासन को उन्हें कुछ एकड़ जमीन आबंटित करने का आदेश दिया।
बतख मियां की लाख भागदौड़ के बावजूद प्रशासनिक सुस्ती के कारण वह जमीन उन्हें नहीं मिल सकी। निर्धनता की हालत में ही 1957 में उन्होंने दम तोड़ दिया। उनके दो पोते-असलम अंसारी और ज़ाहिद अंसारी अभी दैनिक मज़दूरी करके जीवन-यापन कर रहे हैं।
आज इस देशभक्त की तीसरी पीढ़ी मुफ़लिसी में जिंदगी बसर करने को मजबूर है. आज हालात यह हैं कि उनका परिवार दूसरे राज्य में जाकर मजदूरी करने को मजबूर है.
यही नहीं इस शख्स को तत्कालीन राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद ने गांधीजी की जान बचाने की एवज में जो इनाम दिया था वह भी इस परिवार को पूरी तरह से आज तक नहीं मिला.
खेतिहर किसान थे बत्तख मियां:
इतिहासकार अरशद कादरी की लिखी पुस्तक भारत स्वतंत्रता आंदोलन और चंपारण के स्वतंत्रता सेनानी पुस्तक में बत्तख मियां की विस्तार से चर्चा मिलती है. वहीं दूसरी ओर, आप अतीत और इतिहास के पन्नों को पलटेंगे, तो बत्तख मियां भले ही चंपारण के इस सत्याग्रह से गायब मिलें, लेकिन जब आप मोतिहारी स्टेशन पर उतरेंगे, तो आपको उनके नाम का एक बड़ा सा द्वार जरूर मिल जायेगा. बत्तख मियां की कहानी आज भी यहां के आम जनों की जुबानी सुनने को मिल जाती है. जानकार मानते हैं कि बत्तख मियां की चर्चा बिहार विधान परिषद की कार्यवाही में और राष्ट्रपति भवन से जारी चिट्ठी में जरूर मिल जायेगी. बताया जाता है कि वह एक सामान्य से किसान थे. वे अंग्रेज अधिकारियों को पूर्वी चंपारण के सिवा से अजगरी गांव रोजाना दूध पहुंचाने जाते थे. इसी दौरान अंग्रेज अधिकारी इरविन ने बत्तख मियां को दूध में जहर मिलाकर गांधी को देने को कहा था. अंग्रेज अधिकारियों ने बत्तख मियां को उस समय करोड़ों की संपत्ति का लालच दिया था. साथ में उन्हें नहीं करने पर प्रताड़ित करने और यातना देने की बात कही गयी थी. बताया जाता है कि बत्तख मियां ने अंग्रेज अधिकारी के दबाव में दूध में जहर तो मिला दिया, लेकिन गांधी को दूध देने के बाद कह दिया कि इसमें जहर है. अंग्रेजों ने किया प्रताड़ित यह बात खुल जाने के बाद बत्तख मियां को अंग्रेजों ने बहुत सताया और उनकी संपत्ति को अवैध तरीके से नीलाम कर दिया. बत्तख मियां के घर को श्मशान की तरह इस्तेमाल किया जाने लगा. तंग आकर बत्तख मियां का परिवार सिसवा अजगरी गांव छोड़कर पश्चिम चंपारण के अकवा परसौनी गांव में आकर बस गया. बाद में, देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद जब 1950 में मोतिहारी पहुंचे, तो उन्होंने सार्वजनिक तौर पर बत्तख मियां की सराहना की और लोगों को उनके बारे में बताया. उन्होंने वहां के जिलाधिकारी को आदेश दिया कि अंग्रेजों ने बत्तख मियां की सारी जमीन छीन ली थी. इसलिए उन्हें भी कम से कम 50 एकड़ गैर-मजरुआ जमीन दी जाये. बाद में डॉ राजेंद्र प्रसाद का वह आदेश पत्र के रूप में राष्ट्रपति भवन से जारी भी हुआ, लेकिन वह वक्त के थपेड़ों में कहीं खो गया. आज भी अनदेखी का दंश झेल रहा बत्तख मियां का परिवार बताया जाता है कि आज भी उस माटी के गुमनाम नायक का परिवार परेशान और बदहाल है. बत्तख मियां के पोते मो अल्लाउद्दीन अंसारी और मो असलम अंसारी मीडिया को गाहे-बगाहे यह बताते रहते हैं कि अब वे लोग निराश हो चले हैं. उनका कहना है कि सिर्फ और सिर्फ बत्तख मियां के नाम पर चंपारण में सियासत के दावं खेले जाते हैं. सबकुछ राजनीतिक लाभ के लिए किया जाता है. उनके नाम पर एक द्वार बना दिया गया. बत्तख मियां के पोतों की बेटे-बेटियां जवान हैं और वे सभी बेरोजगार हैं. बच्चों को पढ़ने-लिखने की सुविधा नहीं. गुजारा आज भी मुफलिसी में होता है. गांधी पर शोध करने वाले विंध्याचल कहते हैं कि जिस बत्तख मियां ने राष्ट्र के लिए अपनी एक-एक धूर जमीन लूट जाने दिया, आज उनका परिवार गरीबी और मजबूरी में जीवन गुजारने को मजबूर है.
चंपारण में उनकी स्मृति अब मोतिहारी रेल स्टेशन पर बतख मियां द्वार के रूप में ही सुरक्षित हैं ! इतिहास ने स्वतंत्रता संग्राम के गुमनाम योद्धा बतख मियां को भुला दिया। आईए, हम उनकी स्मृतियों को सलाम करें !