टीपू सुल्तान और नेपोलियन बोनापार्ट दोनों ही विश्व इतिहास के महान नायक हैं. किंवदंती बन चुके इन दोनों नायकों के बीच एक सीक्रेट कनेक्शन था. यहां जानिए क्या था दोनों के बीच का रिश्ता.
मैसूर के साथ फ़्रांस के रिश्ते टीपू सुल्तान के समय शुरू नहीं हुये थे बल्कि इसका प्रारंभ टीपू सुल्तान के पिता हैदर अली से हुआ था.
हैदर अली ने फ़्रांस में क़ैद आरकोट के नवाब मोहम्मद अली को छुड़ाने के लिए 1767 में इन संबंधों की शुरुआत की थी.
कैसे आए फ़्रांस के क़रीब
मोहम्मद अली से मिले एक संदेश के बाद हैदर अली को वहां भेजा गया था.
मोहम्मद अली ने हैदर अली से वादा किया था कि उन्हें छुड़ाने पर वह तिरुचिरापल्ली का क़िला हैदर अली को दे देंगे.
लेकिन, हैदर अली को जब पता चला कि मोहम्मद अली क़िला देने वाली अपनी बात पर क़ायम नहीं रहेंगे तो वह फ़्रांसीसियों के क़रीब आ गये.
कर्नाटक और गोवा के दो विश्वविद्यालयों और टीपू सुल्तान पर एक प्राधिकरण के पूर्व उपाध्यक्ष प्रोफ़ेसर बी शेख अली ने कहा, ”इस तरह संबंधों की शुरुआत हुई थी. उनके बीच दोस्ती गहरी हो गई थी. इसका सीधा सा कारण एक सिद्धांत था कि दुश्मन का दुश्मन, दोस्त होता है.”
प्रोफ़ेसर अली बताते हैं, ”उन्होंने बहुत घनिष्ठ राजनीतिक, सैन्य और बौद्धिक संबंध बनाए. उनका एक जैकोबिन क्लब भी था और टीपू सुल्तान उसके विपक्ष थे. उन्होंने इस फ़्रांसीसी क्रांतिकारी विचार की घोषणा की कि समान रूप से पैदा हुए पुरुषों की समान पत्नियां होनी चाहिए. उन्होंने स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे की बात कही.”
टीपू चेयर, मैसूर विश्वविद्याल में विजिटिंग प्रोफ़ेसर सेबेस्टीयन जोसेफ़ ने कहा, ”टीपू सुल्तान ने फ़्रांसीसी भाषा सीखी थी और फ़्रांसीसी अधिकारियों से उन्हीं की भाषा में बात करते थे. वह लोकतांत्रित सिद्धांतों की बात भी करते थे.”
इतिहासकार टी सी गौड़ा कहते हैं, ”उन्होंने करनल बैली को पकड़ा जो उस समय ज़िंदा पकड़े जाने वाले ब्रिटेन के पहले अधिकारी थे. लेकिन, वो 1782 का दौर था जिसे टीपू सुल्तान का सुनहरा काल माना जाता है.”
टी सी गौड़ा आगे बताते हैं, ”टीपू ने पांच नगर बसाये, श्रीरंगपटना, मैसूर, बेंगलुरु, चित्रादुर्ग और बिदनूर. यह उसके औद्योगिक क्षेत्र थे.”
फ़्रांस से तकनीकी सहयोग
”टीपू सुल्तान फ़्रांस में एक दूतावास बनाना चाहते थे और उनसे तकनीकी सहयोग चाहते थे. उन्होंने तीन सदस्यों का एक प्रतिनिधिमंडल फ़्रांस भेजा था जिसमें दरवेस ख़ान, अब्बास ख़ान और गुलाम अली शामिल थे. टीपू सुल्तान के साफ़-साफ़ निर्देश थे कि तकनीकी जानकारी वाले लोगों को उनके मांगी गई क़ीमत से दोगुनी क़ीमत पर लाओ.”
गौड़ा कहते हैं कि यह तकनीकी कुशलता ही थी जिसके कारण कावेरी नदी पर 1789 में झूलता हुआ पुल बन पाया.
फ़्रांसीसियों ने उस समय लौहा और इस्पात मिलाने की तकनीक विकसित कर ली थी.
तब पुल से काफ़ी प्रभावित होने के बाद टीपू सुल्तान ने कावेरी पर बांध बनाने की नींव डाली थी.
जोसेफ़ ने बताया, ”फ़्रांसीसी सेना के कई लोग टीपू सुल्तान की सेना को प्रशिक्षण भी देते थे. उन्होंने फ्रेंच रॉक्स नाम से एक कॉलोनी भी बनाई थी जिसे अब पांडवपुरा कहते हैं.”
अली कहते हैं, ”फ़्रांसीसियों की ही मदद से उस समय चीनी का रंग सफेद किया गया था. श्रीरंगपटना से तीन किमी. दूर पलाहल्ली में एक चीनी मिल लगाई गई थी.”
इतिहासकार यह भी कहते हैं कि टीपू सुल्तान की ताक़त बढ़ाने वाली तोपें भी फ़्रांसीसियों के सहयोग से बनाई गई थीं. बी शेख अली के मुताबिक़, उन्होंने उस समय किसी जल स्रोत से बोरिंग के जरिए धातु निकालने की कला सीख ली थी.
अली का कहना है कि हैदर अली राजनीतिक रूप से कुशल और सैन्य रूप से मजबूत थे.
टीपू ने सिर्फ़ अपने पिता की राजनीतिक रणनीति का पालन किया. वह राजनीतिक रूप से कुशल नहीं थे. वह बहुत भावुक थे.
हैदर अली की राजनीतिक चतुराई इसमें देखी जा सकती है कि उन्होंने ‘फूट डालो और शासन करो’ की ब्रिटिश नीति का कितनी कुशलता से इस्तेमाल किया था.
उन्होंने एक-दूसरे को लड़ाकर यूरोपीय लोगों पर इसे इस्तेमाल किया था.
जोसेफ़ के मुताबिक़, नेपोलियन ने टिपू सुल्तान को लिखा था कि उनकी अजेय सेना अंग्रेजों से लड़ने के लिए भारत आएगी. लेकिन, फ़्रांसीसियों की भारत में दिलचस्पी ख़त्म हो चुकी थे क्योंकि यह सब फ़्रांसीसी क्रांति की पूर्व संध्या पर हुआ था.”
गौड़ा ने फ़्रांस के गैजेट से बताया कि फ़्रांस के राजा लुई सोलहवें की पत्नी लेडी एन्टोएनेट हैदर अली से मिलने के लिए काफ़ी उत्साहित थीं. वह हैदर अली की एक पेंटिंग भी चाहती थी जिसे बाद में उन्होंने अपने बेडरूम में लगाया.
यह 1798 में हुआ था जिसके छह साल बाद अली की मौत हो गई.
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फ्रांसीसियों और अंग्रेजों के बीच 1793 में युद्ध शुरू हुआ. इस बार अंग्रेजों को हराने को लेकर फ्रेंच एकदम सीरियस थे. उन्होंने तय कर लिया कि देसी शासकों की मदद लेकर इस काम को अंजाम देना है. पांडिचेरी उस समय भारत में फ्रांसीसियों का प्रमुख केंद्र हुआ करता था. वही पांडिचेरी, जिसे हम लोग आजकल पुडुचेरी के नाम से जानते हैं.
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हैदर अली उस समय मैसूर का शासक हुआ करता था. हैदर अंग्रेजों का दुश्मन था. मगर उसका बेटा टीपू उससे भी दो कदम आगे था. टीपू की फ्रांसीसियों से दोस्ती थी. टीपू फ्रांसीसी क्रांति में बहुत रुचि ले रहा था और नेपोलियन का प्रशंसक भी था. उसकी पेरिस की डायरेक्टरी में रुचि थी. डायरेक्टरी फ्रांस की संसद को कहते हैं. उसने जैकोबिन क्लब की सदस्यता भी ले रखी थी. जो वहां का एक क्रांतिकारी पार्टी थी. टीपू को नेपोलियन के मिस्र अभियान से बहुत आशा थी. उसके दिमाग में यही था कि इधर नेपोलियन ने मिस्र में अंग्रेजों के पैर उखाड़े. उधर टीपू भारत में फ्रांसीसियों के साथ मिलकर भारत में अंग्रेजों की हवा निकाल देगा.
इस बारे में उसकी नेपोलियन से बात भी हुई थी. नेपोलियन और टीपू के बीच इस प्लान के बारे में बात हुई. मगर अंग्रेजों ने प्लान के काम करने से पहले ही गेम कर दिया. उन्होंने सुस्त, आलसी अंग्रेज गवर्नर जनरल जॉन शोर की जगह लार्ड वेलेजली को भारत में नियुक्त किया. लॉर्ड वेलेजली तेज तर्रार था. उसने टीपू के कोई कदम उठाने से पहले ही निजाम को पटा लिया. जो हैदराबाद का शासक था और बहुत दिन से फ्रांसीसियों का साथी था. निजाम ने फ्रांसीसियों से संधि तोड़ दी और फ्रेंच सैनिकों को निकाल दिया.
अभी उधर नेपोलियन 1799 में सीरिया में लड़ ही रहा था. तभी अंग्रेजों ने मराठों और निजाम के साथ मिलकर टीपू को टीप दिया. इसी लड़ाई को कहा गया- चौथा अंग्रेज-मैसूर युद्ध. इसमें टीपू सुल्तान मारे गए. और उसका दोस्त नेपोलियन उसकी मदद के लिए नहीं आ सका. टीपू के मरने के बाद उसकी कई बेशकीमती चीजें अंग्रेज उठा ले गए. लंदन के ब्रिटिश म्यूजियम में आज भी कई ऐसी चीजें रखी हुई हैं. आखिरी समय में टीपू ने जो अंगूठी पहन रखी थी, उस पर राम लिखा हुआ था. कहते हैं अंग्रेजों ने उनकी उंगली काटकर वो अंगूठी भी निकाल ली.
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