भारत की माटी को प्रणम्य बनाने एवं उसे अमरता प्रदान करने में ‘दलितों के मसीहा’ और ‘संविधान निर्माता’ कहे जाने वाले आज के सबसे चर्चित महापुरूष डाॅ.भीमराम आम्बेडकर का अमूल्य योगदान है, वे अखण्ड भारत एवं आदर्श एवं संतुलित समाज रचना के प्रेरक थे, उन्होंने आधुनिक, लोकतांत्रिक, धर्म निरपेक्ष, आर्थिक दृष्टिकोण वाले समतामूलक भारत के अभ्युदय की नींव डाली। वे राष्ट्रीयता के महानायक थे।

 

आज दुनिया के साथ-साथ भारत भी तेजी से बदल रहा है। सर्वव्यापी उथल-पुथल में नित नए राजनीतिक समीकरण बन-बिगड़ रहे हैं। भारत के स्वप्न को अधिक गहरा और विराट बनाने के लिये डाॅ.भीमराम आम्बेडकर के राजनीतिक दृष्टिकोण को व्यापक परिप्रेक्ष्य में समझना होगा। क्योंकि इस दौर में सबसे उजागर है, डाॅ. आम्बेडकर का सभी राजनीतिक धाराओं का लाडला हो जाना। दलितों ही नहीं, भारत की समस्त जनता को यह समझना आवश्यक है कि जिस स्वाभिमान को गांधीजी ने सत्य और अहिंसा तथा भगत सिंह ने मनुष्य द्वारा, मनुष्य के शोषण से मुक्त समाज की धारणा से चिन्हित किया था, उसे डाॅ. आम्बेडकर ने ‘सामाजिक न्याय’ को ‘अनिवार्य’ मुद्दा बनाकर पुष्ट किया था। आज जो दलितों में स्वाभिमान और सशक्तिकरण की उत्कट आकांक्षा व्याप्त है, वही उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि कही जा सकती है। ज्योतिबा फुले और डाॅ. आम्बेडकर ने भारत के दलितों को समस्त मानव समाज से जोड़ा था। बात केवल दलितों की नहीं है, वे भारत का समग्र विकास देखना चाहते हैं, वे इंसान को बांटना नहीं चाहते थे। अखण्ड इंसान एवं अखण्ड राष्ट्र के लिये उनके प्रयत्न सदैव प्रासंगिक रहेंगे।
डाॅ. आम्बेडकर  का  जन्म 14 अप्रैल 1891 को एक सैनिक छावनी महु में महार जाति के रामजी मालोजी सकपाल नामक सूबेदार के घर हुआ। अछूत समझी जाने वाली जाति में जन्म लेने के कारण अपने स्कूली जीवन में आम्बेडकर को अनेक अपमानजनक स्थितियों का सामना करना पड़ा। इन सब स्थितियों का धैर्य और वीरता से सामना करते हुए उन्होंने स्कूली शिक्षा समाप्त की। फिर कॉलेज की पढ़ाई शुरू हुई। इस बीच पिता का हाथ तंग हुआ। खर्चे की कमी हुई। एक मित्र उन्हें बड़ौदा के शासक गायकवाड़ के यहाँ ले गए। गायकवाड़ ने उनके लिए स्कॉलरशिप की व्यवस्था कर दी और आम्बेडकर ने अपनी कॉलेज की शिक्षा पूरी की। वे एलिफिन्सटन कॉलेज से 1912 में ग्रेजुएट हुए। कुछ साल बड़ौदा राज्य की सेवा करने के बाद उनको फिर गायकवाड़-स्कालरशिप प्रदान की गयी, जिसके सहारे उन्होंने अमेरिका के कोलम्बिया विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में एम.ए. (1915) किया। इसी क्रम में वे प्रसिद्ध अमेरिकी अर्थशास्त्री सेलिगमैन के प्रभाव में आए। सेलिगमैन के मार्गदर्शन में आम्बेडकर ने कोलंबिया विश्वविद्यालय से 1917 में पी एच. डी. की उपाधि प्राप्त कर ली।  इसके अलावा भी उन्होंने अन्य डिग्रियां प्राप्त की।
डाॅ. भीमराम आम्बेडकर महान् समाज सुधारक एवं स्वतंत्रता आन्दोलन के प्रेरक थे। वे भारतीय विधिवेत्ता ,अर्थशास्त्री, राजनीतिज्ञ और समाजसुधारक थे। उन्होंने दलित बौद्ध आंदोलन को प्रेरित किया और दलितों के खिलाफ सामाजिक भेदभाव के विरुद्ध अभियान चलाया। श्रमिकों और महिलाओं के अधिकारों का समर्थन किया। वे स्वतंत्र भारत के प्रथम कानून मंत्री एवं भारतीय संविधान के प्रमुख वास्तुकार थे। जीवन के प्रारम्भिक कैरियर में वे अर्थशास्त्र के प्रोफेसर रहे एवम वकालत की। बाद का जीवन राजनीतिक गतिविधियों में बीता। 1956 में उन्होंने बौद्ध धर्म अपना लिया। वे एक बहुजन राजनीतिक नेता और एक बौद्ध पुनरुत्थानवादी भी थे। उन्हें बाबासाहेब नाम से भी जाना जाता है। आम्बेडकर ने अपना सारा जीवन हिन्दू धर्म की चतुवर्ण प्रणाली और भारतीय समाज में सर्वत्र व्याप्त जाति व्यवस्था के विरुद्ध संघर्ष में बिता दिया। उन्हें बौद्ध महाशक्तियों के दलित आंदोलन को प्रारंभ करने का श्रेय भी जाता है। आम्बेडकर को भारत रत्न से भी सम्मानित किया गया है। अपनी महत्त्वपूर्ण उपलब्धियों तथा देश की अमूल्य सेवा के फलस्वरूप डॉ. आम्बेडकर को आधुनिक युग का मनु कहकर सम्मानित किया गया। आज हमारी राष्ट्रीयता की फिजां में जो कुछ बेहतर है उसके पीछे उनकी कोशिशों का महत्वपूर्ण योगदान है।
यह विचार सच है कि मनुष्य इतिहास का उत्पाद भी होता है और उसका रचयिता भी। भारत के अपेक्षाकृत जागरूक परिवेश में, एक जागरूक कबीर पंथी परिवार में पैदा होने से डाॅ. आम्बेडकर जागरूक भी थे और सुधारवादी भी। वे अपनी अंतःचेतना से विद्रोही  थे। इसलिए उनमें अपने प्रति हो रहे भेदभाव को महसूस करने और समझने की चेतना शुरू से थी। जागरूकता और चेतना की किसी भूमिका को अच्छी तरह समझ लेना जरूरी होता है। इसे हम फ्रांस की क्रांति से अच्छी तरह समझ सकते हैं। कहा जाता है कि 1789 ई. में फ्रांस में हुई क्रांति से पहले वहां एक बौद्धिक क्रांति हुई, जिसके अग्रणी थे- वाॅल्तेयर, मांतेस्कियु, दिदरो और रूसो आदि। फ्रांस में क्रांति इसलिए नहीं हुई थी कि फ्रांस एक गरीब, शोषित और उत्पीड़ित देश था बल्कि वहां क्रांति इसलिए संभव हुई, क्योंकि वहां एक जागरूक मध्यवर्ग पैदा हो गया था, जो अपनी आर्थिक नहीं, सामाजिक वंचनाओं के प्रति जागरूक था। इसी से साबित हुआ था कि मनुष्य को आर्थिक से अधिक सामाजिक न्याय की आकांक्षा होती है। यही बात अमेरिकी क्रांति तथा बीसवीं शताब्दी में हुई रूसी क्रांति मंे भी दिखाई पड़ती है, जहां लोग शोषित से अधिक अपमानित महसूस करने लगे थे। यही कारण है कि डाॅ. आम्बेडकर ने भारत की जनता को अपने प्रति हो रहे अन्याय, शोषण एवं उत्पीड़न के लिये जागरूक किया।
डाॅ. भीमराम आम्बेडकर जातिवाद एवं दलित शोषण के सख्त खिलाफ थे, लेकिन इससे भी आगे वे आधुनिक भारत का, विकसित एवं शक्तिशाली भारत का निर्माण चाहते थे। सामाजिक समानता के लिए वे प्रयत्नशील हो उठे। आम्बेडकर ने ‘ऑल इण्डिया क्लासेस एसोसिएशन’ का संगठन किया। दक्षिण भारत में बीसवीं शताब्दी के तीसरे दशक में गैर-ब्राह्मणों ने ‘दि सेल्फ रेस्पेक्ट मूवमेंट’ प्रारम्भ किया जिसका उद्देश्य उन भेदभावों को दूर करना था जिन्हें ब्राह्मणों ने उन पर थोप दिया था। सम्पूर्ण भारत में दलित जाति के लोगों ने उनके मन्दिरों में प्रवेश-निषेध एवं इस तरह के अन्य प्रतिबन्धों के विरुद्ध अनेक
आन्दोलनों का सूत्रपात किया। परन्तु विदेशी शासन काल में अस्पृश्यता
विरोधी संघर्ष पूरी तरह से सफल नहीं हो पाया। विदेशी शासकों को इस बात का भय था कि ऐसा होने से समाज का परम्परावादी एवं रूढ़िवादी वर्ग उनका विरोधी हो जाएगा। अतः क्रान्तिकारी समाज-सुधार का कार्य केवल स्वतन्त्र भारत की सरकार ही कर सकती थी। सामाजिक पुनरुद्वार की समस्या राजनीतिक एवं आर्थिक पुनरुद्वार की समस्याओं के साथ गहरे तौर पर जुड़ी हुई थी। जैसे, दलितों के सामाजिक पुनरुत्थान के लिए उनका आर्थिक पुनरुत्थान आवश्यक था। इसी प्रकार इसके लिए उनके बीच शिक्षा का प्रसार और राजनीतिक अधिकार भी अनिवार्य थे। लेकिन स्वतंत्र भारत में राजनीतिक दलों ने अपने स्वार्थों के लिये उनके दृष्टिकोण एवं चिन्तन को गलत अर्थ में प्रस्तुति दी।
डाॅ. आम्बेडकर कुशल राजनीतिज्ञ भी थे। येओला नासिक में 13 अक्टूबर 1935 को आम्बेडकर ने एक रैली को संबोधित किया। इसी दिन आम्बेडकर को सरकारी लॉ कॉलेज का प्रधानाचार्य नियुक्त किया गया और इस पद पर उन्होंने दो वर्ष तक कार्य किया। इसके चलते आम्बेडकर बंबई में बस गये, उन्होंने यहाँ एक बडे़ घर का निर्माण कराया, जिसमें उनके निजी पुस्तकालय में 50000 से अधिक पुस्तकें थीं। इसी वर्ष उनकी पत्नी रमाबाई की एक लंबी बीमारी के बाद मृत्यु हो गई। आम्बेडकर ने 1936 में स्वतंत्र लेबर पार्टी की स्थापना की, जो 1937 में केन्द्रीय विधान सभा चुनावों में 15 सीटें जीती।
1920 के दशक में बंबई में एक बार बोलते हुए डाॅ. भीमराम आम्बेडकर ने साफ-साफ कहा था जहाँ मेरे व्यक्तिगत हित और देशहित में टकराव होगा वहाँ मैं देश के हित को प्राथमिकता दूँगा, लेकिन जहाँ दलित जातियों के हित और देश के हित में टकराव होगा, वहाँ मैं दलित जातियों को प्राथमिकता दूँगा। वे अंतिम समय तक दलित-वर्ग के मसीहा थे और उन्होंने जीवनपर्यंत अछूतोद्धार के लिए कार्य किया। उन्होंने अपने लेखन एवं कार्यक्रमों में अनेक ऐसे सूत्र दिए हैं जिनके आधार पर भारतीय इतिहास को हम पूंजीवादी विवेचकों के दुष्प्रभाव से मुक्त कर सकते हैं। उनकी एक क्रांतिकारी स्थापना यह है कि इंग्लैंड किसी तरह व्यापार में भारत से स्पर्धा न कर सकता था और माल तैयार करने वाले देश के रूप में भारत इंग्लैंड से बढ़ कर था। अंग्रेजी शासनतंत्र के विवेचन में आम्बेडकर ने अनेक ऐसे तथ्य दिए हैं जिनसे प्रमाणित होता है, अंग्रेजों ने जाति-बिरादरी की प्रथा को और कठोर बनाया, उन्होंने यहाँ का व्यापार नष्ट किया, शहरों के उद्योग-धंधे तबाह किए। लाखों कारीगर शहर छोड़कर देहात में जा बसे, वहां जमींदारों की बेगार करने पर बाध्य हुए।
डाॅ. भीमराम आम्बेडकर ने आर्थिक रूप से विपन्न और शोषित समुदाय में सामाजिक न्याय के लिए एक चेतना पैदा की। उनकी मुख्य छवि दलित मसीहा की बनकर रह गई। उनको मुख्यतः संविधान निर्माता के रूप में ही सराहा जाता है। लेकिन हकीकत यह है कि वे अपने मनोनुकूल संविधान नहीं बना पाये। यदि वे जैसा चाहते, वैसा संविधान बनाते तो भारत में गरीबी नहीं होती, जातिवाद नहीं होता, अस्पृश्यता नहीं होती, दलित नहीं होते। उन्होंने भारत के शासक समुदायों को स्वीकार्य होने वाला संविधान बनाया। उसमें शासकों की सुविधा और सुरक्षा के लिए अब सैकड़ों संविधान संशोधन किए जा चुके हैं। पर आज भी गांधीजी के शब्दों में अंतिम पायदान पर खड़े व्यक्ति के आंसू पोंछने की गारंटी नहीं है। हमें याद रखना चाहिए कि संविधान निर्माता ने भारत में कानून मंत्री के पद से असंतुष्ट होकर इस्तीफा दे दिया था।
आज की दुनिया में दलितों और उत्पीड़तों की आवाज बुलंद करने वाले सबसे बड़े नाम दक्षिण अफ्रीका के नेल्सन मंडेला और संयुक्त राज्य अमेरिका के मार्टिन लूथर किंग के हैं। मेरे विचार से विश्व परिप्रेक्ष्य में भी डाॅ. आम्बेडकर की अर्थवत्ता इन दोनों से भी बड़ी है। ऐसे दलितों के महानायक का 6 दिसम्बर 1956 को दिल्ली में उनके घर में महापरिनिर्वाण हो गया। उनका 7 दिसंबर को मुंबई में दादर चैपाटी समुद्र तट पर बौद्ध शैली मे अंतिम संस्कार किया गया जिसमें उनके लाखों समर्थकों, कार्यकर्ताओं और प्रशंसकों ने भाग लेकर अपने महानायक को अन्तिम विदाई दी।

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