अंग्रेज़ भारत में करीब 200 साल रहे. क्या आप जानते हैं वो कौन सी घटना थी, जिसने अंग्रेज़ों को भारत में पैर जमाने का मौका दिया? ये मुमकिन हो सका, एक शख्स के धोखे की वजह से. धोखा देने वाले शख्स का नाम था मीर जाफर. उस धोखे की बलि चढ़े थे बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला. नवाब के सत्ता और जान से हाथ धोने की देर थी बस, फिरंगी कदम भारतभूमि पर पड़ चुके थे. अगले लगभग 200 सालों तक जमें रहने के लिए.

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मीर जाफर का ये वही जगतप्रसिद्ध धोखा है जिसकी वजह से पीढ़ियों तक लोग अपने बच्चों का नाम मीर जाफर रखने में कतराते थे. गद्दारी और नमकहरामी का प्रतीक बन गया था ये नाम. 2 जुलाई 1757 का वो दिन था, जब नवाब सिराजुदौला को एक गद्दार सेनापति की धोखाधड़ी की कीमत अपनी जान देकर चुकानी पड़ी थी.

नवाब सिराजुद्दौला को आख़िरी आज़ाद नवाब कहा जाता है. और ठीक ही कहा जाता है. नवाब की जान जाते ही भारतीय उपमहाद्वीप में अंग्रेज़ी शासन की नींव रखी गई. नवाब का पूरा नाम मिर्ज़ा मुहम्मद सिराजुद्दौला था. 1733 में पैदा हुए नवाब की अपनी मौत के वक़्त महज़ 24 साल की उम्र थी. अपनी मौत से साल भर पहले ही अपने नाना की मौत के बाद, उन्होंने बंगाल की गद्दी संभाली थी. ये वही वक्त था, जब ईस्ट इंडिया कंपनी उपमहाद्वीप में अपने कदम जमाने की कोशिश कर रही थी. नवाब ने बरसों से बंगाल के सेनापति रहे मीर जाफर की जगह मीर मदान को तरजीह दी. इससे मीर जाफर नवाब से बुरी तरह खफ़ा हो गया.

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अपनी ज़मीन पक्की करने के फ़िराक में लगे अंग्रेज़ों की राह में, नवाब सिराजुद्दौला बहुत बड़ा रोड़ा थे. उन्होंने इस बात की संभावना तलाशनी शुरू की, कि क्या किसी विभीषण का वजूद है? वो कहते हैं न हर लंका में एक विभीषण मौजूद होता है, सो अंग्रेज़ी सेना के सेनापति रॉबर्ट क्लाइव ने कुछ जासूस बंगाल भेजें. उन्होंने बताया कि मीर जाफर में काफी संभावनाएं हैं. मीर जाफर बंगाल का नवाब बनने का सपना संजोए बैठा था. क्लाइव ने उससे संपर्क साधा. और साजिश परवान चढ़ने लगी.

कुछ समय बाद ही अंग्रेज़ों ने बंगाल पर धावा बोल दिया. नवाब सिराजुद्दौला अपनी पूरी फ़ौज को अंग्रेज़ों के खिलाफ़ नहीं झोंक सकते थे. क्योंकि बंगाल की सीमाओं पर ख़तरा हमेशा बना रहता था. इसलिए फ़ौज के एक हिस्से के साथ वो प्लासी पहुंचे. मुर्शिदाबाद से कोई 27 मील दूर डेरा डाला. 23 जून को एक मुठभेड़ में सिराजुद्दौला के विश्वासपात्र मीर मदान की मौत हो गई. नवाब ने सलाह के लिए मीर जाफर को पैगाम भेजा. मीर जाफर ने सलाह दी कि युद्ध रोक दिया जाए. नवाब ने मीर जाफर की सलाह मान ली. यही वो भूल थी जिससे अंग्रेजी हुकूमत हिंदुस्तान में अपने पैर जमा सकी।

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23 जून, 1757 को प्लासी की लड़ाई हारने के बाद सिराजुद्दौला एक ऊँट पर सवार हो कर भागे थे और सुबह होते-होते मुर्शिदाबाद पहुंच गए थे. अगले ही दिन रॉबर्ट क्लाइव ने मीर जाफ़र को एक नोट भिजवाया जिसमें लिखा था, ”मैं इस जीत पर आपको बधाई देता हूँ. ये जीत मेरी नहीं आपकी है. मुझे उम्मीद है कि मुझे आपको नवाब घोषित करवा पाने का सम्मान मिलेगा.”

‘क्लाइव को इस जीत के लिए निजी तौर पर दो लाख 34 हज़ार पाउंड के बराबर धन मिलने वाला था. इसके अलावा वो प्रति वर्ष 27 हज़ार पाउंड की आमदनी देने वाली जागीर के मालिक भी होने वाले थे. अगले कुछ दिन बहुत तनाव में बीते. क्लाइव को डर था कि कहीं मीर जाफ़र अपने वादे से फिर न जाएं. वो दोनों एक दूसरे को इस तरह ताड़ने की कोशिश कर रहे थे जैसे दो बड़े गुंडे बड़ी लूट के बाद उसका हिस्सा करने के लिए बैठते हैं.”

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जहाँ क्लाइव लूट में अपना हिस्सा मिलने का इंतज़ार कर रहे थे, वहीं मीर जाफ़र के बेटे मीरान ने पूरे बंगाल में राजधानी से भाग चुके सिराजुद्दौला को ढूंढने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी. सिराजुद्दौला आम आदमियों के कपड़े पहनकर भागे थे. वो पहले पटना के भगवानगोला गए और फिर दो दिन बाद कई नावें बदलते हुए राजमहल के किनारे पहुंचे.
इसी इलाके में रह रहे एक फ़कीर शाह दाना ने मुख़िबरी करते हुए सिराजुदौला के वहाँ पहुंचने की ख़बर उनके दुश्मनों तक पहुंचा दी जो उन्हें ढ़ूंढने के लिए दिन-रात एक कर रहे थे. मीर जाफ़र के दामाद मीर क़ासिम ने ये ख़बर मिलते ही नदी पार की और सिराजुद्दौला को अपने हथियारबंद लोगों से घेर लिया.
सिराजुद्दौला को गिरफ़्तार करके 2 जुलाई, 1757 को मुर्शिदाबाद लाया गया. उस समय रॉबर्ट क्लाइव मुर्शिदाबाद में ही मौजूद थे.
मीर जाफ़र अपने दरबारियों और अधिकारियों से सलाह मशविरा करता रहा कि सिराजुद्दौला के साथ क्या बर्ताव किया जाए कुछ लोगों ने सलाह दी कि सिराज को जेल में ज़िदा रखा जाए लेकिन मीर जाफ़र का 17 साल का बेटा मीरान इसके सख़्त ख़िलाफ़ था उसने रात के अंधेरे में अपने साथियों के साथ कटार और तलवार से हमला कर सिराजुद्दौला को मौत के घाट उतार दिया।
अगले दिन सिराजुद्दौला के क्षत-विक्षत शव को हाथी की पीठ पर लाद कर मुर्शिदाबाद की गलियों और बाज़ारों में घुमाया गया. ये उनकी हार का सबसे बड़ा सबूत था.
उस समय सिराजुद्दौला की उम्र मात्र 25 साल की थी. मीरान की क्रूरता यहीं पर नहीं रुकी. कुछ दिनों बाद उसने अलीवर्दी ख़ाँ के ख़ानदान की सभी औरतों को भी मरवा दिया.

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सिर्फ़ एक महिला की जान बख़्श दी गई थी. वो महिला थीं, सिराजुद्दौला की बहुत ही सुंदर पत्नी लुत्फ़ उन निसा. मिरान और उसके पिता मीर जाफ़र दोनों ने उनसे शादी करने का पैग़ाम भिजवाया.
”लुत्फ़ उन निसा ने उन दोनों के शादी के पैग़ाम को ये कहते हुए ठुकरा दिया, की पहले हाथी की सवारी कर चुकी मैं अब गधे की सवारी करने से तो रही.”

प्लासी की लड़ाई जीतने के एक साल के अंदर ही मीर जाफ़र का जलवा ख़त्म होने लगा था. कुछ समय पहले मीर जाफ़र की पुरज़ोर वकालत करने वाले क्लाइव उसे ‘the old fool’ यानि ‘बेवकूफ़ बुड्ढा’ और उसके बेटे मीरान को ‘a worthless young dog’ यानी ‘बेकार कुत्ता’ कहने लगे थे. उधर मीर जाफर से नाराज उसकी जनता ने उसकी हवेली को नमक हराम ड्योढ़ी बुलाना शुरू कर दिया था जो आज भी मुर्शिदाबाद के लालबाग इलाके में स्थित है।
इतिहास शायद गद्दारों के साथ इसी तरह बदला लेता है।
सत्ता की वो बाज़ी तो मीर जाफर जीत गया था. लेकिन तारीख ने उसे बुरी तरह हरा दिया. आज भी मीर जाफर का नाम कहावतों में पिरोया हुआ, विश्वासघात की दास्तान बना फिरता है. वक़्त सब हिसाब बराबर कर देता है.

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