प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी. आज 17 सितंबर 2020 को उनका 71वां जन्मदिन है. राजनीति में मोदी का सफ़र तमाम उतार-चढ़ावों से गुजरा है. बहुत से लोगों को ये जिज्ञासा रहती है कि आखिर बीजेपी और संघ का एक आम कार्यकर्ता पहले गुजरात के मुख्यमंत्री और फिर देश के प्रधानमंत्री की कुर्सी तक कैसे पहुंचा. इसके पीछे की कहानी क्या है, आज हम वही कहानी आपको बताएंगे, थोड़े जुदा अंदाज में.
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1 अक्टूबर 2001 का दिन था. नरेंद्र मोदी किसी टीवी पत्रकार के दाह संस्कार में हिस्सा ले रहे थे. ठीक उसी समय उनके पास प्रधानमंत्री कार्यालय से फोन आया. दूसरी तरफ अटल बिहारी वाजपेयी थे. उन्होंने मोदी को शाम को आकर मिलने का फरमान सुनाया. शाम को तय समय पर मोदी उनसे मिलने पहुंचे. इस मुलाकात में वाजपेयी ने नरेंद्र मोदी से कहा-
“दिल्ली में पंजाबी खाना खाकर तुम काफी मोटे हो गए हो. फिर से गुजरात लौट जाओ.”
नरेंद्र मोदी को उस समय तक पता नहीं था कि उनका नाम गुजरात के अगले मुख्यमंत्री के तौर पर तय कर दिया गया है. ऐसे में उन्होंने वाजपेयी से पूछा कि वहां जाकर क्या करना है? तब वाजपेयी ने उन्हें बताया कि उन्हें सूबे के मुख्यमंत्री के तौर पर वहां भेजा जा रहा है. एमवी कामत ने 2009 में “Narendra Modi–The Architect of a Modern State” नाम से नरेंद्र मोदी की जीवनी लिखी है. इस जीवनी के मुताबिक नरेंद्र मोदी ने शुरुआत में मुख्यमंत्री पद लेने से यह कहते हुए मना कर दिया था कि वो छह साल से गुजरात से बाहर हैं और उनकी दिलचस्पी मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठने के बजाय संगठन के काम करने की है.
जीवनी अक्सर एकतरफा पहलू बयान करने वाले दस्तावेज़ होते हैं. कहानी का एक और पहलू भी है. दिल्ली में रहने के दौरान नरेंद्र मोदी संघ और बीजेपी के राष्ट्रीय नेतृत्व के संपर्क में आए. इस दौरान शंकर सिंह वाघेला एक बार फिर से बीजेपी से विद्रोह कर चुके थे. मोदी दिल्ली में संघ के नेताओं के सामने यह साबित करने में लगे हुए थे कि शंकर सिंह वाघेला के बारे में उनका अंदेशा कितना सटीक साबित हुआ. इस बीच उन्होंने मीडिया में भी अपनी पैठ बनानी शुरू कर दी और समाचार चैनलों पर उन्हें बीजेपी का पक्ष रखते हुए देखा जा सकता था. 1998 में केशुभाई की सरकार बनने के कुछ समय बाद ही मोदी ने उनके खिलाफ लॉबिंग तेज़ कर दी. 2001 में भुज भूकंप के बाद मोदी को दिल्ली के कई अखबारों और पत्रिकाओं के दफ्तर में केशुभाई सरकार के खिलाफ दस्तावेज़ उपलब्ध करवाते हुए देखा गया. दी कारवां मैगजीन को दिए इंटरव्यू में आउटलुक पत्रिका के संपादक रह चुके विनोद मेहता याद करते हैं-
“जब नरेंद्र मोदी दिल्ली में बीजेपी के लिए काम कर रहे थे, वो एक दिन मेरे से मिलने मेरे दफ्तर आए. उनके पास कुछ ऐसे दस्तावेज़ थे, जो गुजरात की केशुभाई की सरकार के खिलाफ जाते थे. इसके कुछ दिन बाद मैंने सुना कि उन्हें गुजरात का नया मुख्यमंत्री बनाया जा रहा है.”
गुजरात में केशुभाई पटेल सूखे और भूकंप के साथ-साथ दो उपचुनाव और पंचायती चुनाव में पार्टी की हार की वजह से पार्टी और प्रशासन दोनों मोर्चे पर घिरे हुए थे. नरेंद्र मोदी इस दौरान लगातार दिल्ली में बैठकर संघ और बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व के दिमाग यह बात बैठा रहे थे कि केशुभाई के नेतृत्व में 2003 का चुनाव नहीं जीता जा सकता. अंत में सितंबर 2001 में यह तय हो गया कि केशुभाई की विदाई का समय करीब है. नरेंद्र मोदी 1995 में गुजरात बीजेपी और संघ के नेताओं की नाराजगी के चलते सूबे से बाहर किए गए थे. वो जानते थे कि गुजरात बीजेपी का विधायक दल उन्हें अपना नेता कभी नहीं चुनेगा. यह एक सोची-समझी रणनीति थी कि उनका नाम दिल्ली से प्रस्तावित हो. आखिरकार उनकी कोशिश रंग लाई और झंडेवालान के संघ कार्यालय ने उनके नाम पर आखिरी मोहर लगा दी. वो संघ के पहले पूर्णकालिक प्रचारक थे, जिन्हें मुख्यमंत्री की कुर्सी सौंपी जा रही थी. ऐसे में उनकी सेफ लैंडिंग के लिए संघ ने बीजेपी के तीन बड़े नेताओं को नियुक्त किया. ये तीन नेता थे, मदन लाल खुराना, कुशाभाऊ ठाकरे और जना कृष्णमूर्ति.
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इधर केशुभाई को जब गद्दी खाली करने का फरमान सुनाया गया तो वो ऐसा न करने पर अड़ गए. पहले उन्होंने अपने छह विधायकों को दिल्ली भेजा ताकि वो दिल्ली में यह माहौल बना सकें कि प्रदेश बीजेपी में सभी नेता केशुबापा के हटाए जाने के विरोध में हैं. इन छह विधायकों ने संघ के फरमान के चलते दिल्ली आकर अपनी वफादारी बदल ली. इस धोखे से आहत केशुभाई पटेल ने राजनीति से संन्यास की घोषणा कर दी. 5 अक्टूबर के रोज मदन लाल खुराना नरेंद्र मोदी के साथ ख़ास तौर पर अहमदाबाद आए ताकि इस तख्तापलट को अंजाम दिया जा सके.
खुराना आखिरकार केशुभाई को मनाने में कामयाब रहे. 6 अक्टूबर को केशुभाई पटेल ने अपना इस्तीफ़ा राज्यपाल को सौंप दिया. इस दिन शाम को ही बीजेपी विधायक दल की मीटिंग बुलाई गई. इस मीटिंग में नरेंद्र मोदी को मुख्यमंत्री चुने जाने का प्रस्ताव केशुभाई के हाथों पेश करवाया गया. सब काम शांति से निपट गया. 7 अक्टूबर के रोज नरेंद्र मोदी ने गुजरात के 14वें मुख्यमंत्री के तौर पर शपथ ली.
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हिंदू हृदय सम्राट
2003 में राजस्थान में विधानसभा चुनाव थे. गुजरात से सटे राजस्थान के जिले उदयपुर में नरेंद्र मोदी चुनाव प्रचार के लिए आए. मंच पर उनके बगलगीर थीं वसुंधरा राजे सिंधिया. हालांकि उस समय तक बीजेपी का केन्द्रीय नेतृत्व उन्हें विधानसभा चुनाव के प्रचार अभियान से दूर रखे हुए था. जैसे ही वो मंच बोलने के लिए खड़े हुए, नीचे खड़ी जनता की तरफ से नारा लगना शुरू हुआ-
“देखो-देखो कौन आया, गुजरात का शेर आया.”
अगले दिन के अखबार इसी नारे को हेडलाइन के तौर पर अपने पहले पन्ने पर टांगे हुए थे. यह राजस्थान में उनकी एकमात्र रैली थी लेकिन इसने बीजेपी को ठीक-ठाक चुनावी फायदा पहुंचा दिया.
गुजरात का शेर, हिन्दू हृदय सम्राट, ये वो शब्द थे जो राम मंदिर आंदोलन के समय लालकृष्ण आडवाणी के लिए इस्तेमाल होते थे. एक दशक बाद इस संबोधन का पर्याय बदल गया. वजह थी गुजरात दंगा. फरवरी 2002 में गोधरा में साबरमती एक्सप्रेस से अयोध्या से लौट रहे कार सेवकों को जिंदा जलाए जाने के बाद पूरा गुजरात दंगों की आग में झुलस गया. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, इन दंगों में मारे गए लोगों की संख्या 1044 है, जबकि स्वतंत्र जांच आयोग की रिपोर्ट्स के मुताबिक यह आंकड़ा 2000 से 2500 के बीच है. गुजरात दंगों में नरेंद्र मोदी की क्या भूमिका थी, यह बहस का विषय है. गोधरा के बाद एक बात तयशुदा तौर पर कही जा सकती है कि इन दंगों के बाद मोदी संघ और हिन्दुत्ववादी संगठनों की आंखों का तारा बन गए थे. इसके सबूत हमें मिलते हैं अप्रैल 2002 में हुई बीजेपी कार्यकारिणी मीटिंग में.
वाजपेयी तख्तापलट के शिकार हुए
4 अप्रैल 2002. गुजरात दंगों के एक महीने बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी गुजरात के दौरे पर थे. एक राहत शिविर में वो दंगा प्रभावित लोगों को संबोधित कर रहे थे-
“विदेशों में हिन्दुस्तान की बहुत इज्ज़त है. उनमें मुस्लिम देश भी शामिल हैं. मगर जाने से पहले मैं सोच रहा हूं मैं कौन सा चेहरा लेकर जाऊंगा. कौन सा मुंह लेकर जाऊंगा.”
दिनभर का दौरा खत्म करने के बाद प्रधानमंत्री शाम को अहमदाबाद में पत्रकारों से मुखातिब थे. उनके बगलगीर थे गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी. जब पत्रकारों ने उनसे पूछा कि उनका मुख्यमंत्री के लिए क्या संदेश है? उस समय वाजपेयी का जो जवाब था, वो आज भी गुजरात दंगों के संदर्भ में नरेंद्र मोदी की सबसे बड़ी आलोचना के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है. अटल बिहारी बोले-
“चीफ मिनिस्टर के लिए मेरा एक ही संदेश है कि वो राजधर्म का पालन करें. राजधर्म, यह शब्द काफी सार्थक है. मैं उसी का पालन कर रहा हूं. पालन करने का प्रयास कर रहा हूं. राजा के लिए, शासक के लिए, प्रजा-प्रजा में भेद नहीं हो सकता. न जन्म के आधार पर, न जाति के आधार पर, न संप्रदाय के आधार पर.”
नरेंद्र मोदी पूरी प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान काफी असहज दिख रहे थे. जब वाजपेयी राजधर्म शब्द को ‘सार्थक’ बता रहे थे, नरेंद्र मोदी के चेहरे की एक कड़वी मुस्कान कैमरे में दर्ज कर ली गई. आखिरकार वो वाजपेयी की नसीहत से उकता से गए. उन्होंने प्रधानमंत्री की बात को बीच में काटते हुए कहा, “हम भी वही कर रहे हैं, साहब.” वाजपेयी समझ गए कि इसके बाद स्थिति अनियंत्रित हो सकती है. बिना मोदी की तरफ देखे उन्होंने अपनी बात जारी रखते हुए कहा, “मुझे विश्वास है कि नरेंद्र भाई यही कर रहे हैं.” इसके बाद उन्होंने ‘बहुत-बहुत धन्यवाद’ कहते हुए प्रेस कॉन्फ्रेस खत्म कर दी.
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अटल बिहारी वाजपेयी की बात को जिस तरह से मोदी ने बीच में काटा था, वो पत्रकारों के बीच चर्चा का विषय बन गया. केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी 20 पार्टियों वाली गठबंधन सरकार चला रहे थे. इस गठबंधन के विभिन्न घटक दल वाजपेयी पर नरेंद्र मोदी को हटाने का दबाव बना रहे थे. वाजपेयी सरकार को बाहर से समर्थन दे रही तेलुगुदेशम पार्टी अटल बिहारी वाजपेयी को दो-टूक शब्दों में जवाब दे चुकी थी. उस समय अटल सरकार में खनन मंत्री रामविलास पासवान ने गुजरात दंगों का विरोध करते हुए अपने पद से इस्तीफ़ा दे दिया था. लेकिन तब तक काफी देर हो चुकी थी. वाजपेयी कुछ दिन पहले ही अपनी कुर्सी गंवाते-गंवाते बचे थे.
11 अप्रैल 2002. चार लोग दिल्ली से गोवा के लिए उड़ान भर रहे थे. अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, जसवंत सिंह और अरुण शौरी. वाजपेयी अपना सिंगापुर दौरा खत्म करके दिल्ली लौटे ही थे. सिंगापुर जाने से पहले वो अपने विश्वस्त सिपहसालारों को निर्देश देकर गए थे कि उनके आने तक नरेंद्र मोदी का इस्तीफ़ा ले लिया जाए. हवाई जहाज में आमने-सामने बैठे अटल और आडवाणी एक दूसरे से बात करने से कतरा रहे थे. वाजपेयी ने अपने सामने पड़ा अखबार उठाया और अपने मुंह के सामने खोलकर पढ़ने लगे. जवाब में आडवाणी ने भी ऐसा ही किया. इसके बाद अरुण शौरी ने वाजपेयी के हाथ से अखबार ले लिया. आगे क्या हुआ इसका बयान हमें उल्लेख एन.पी. की किताब “The Untold Vajpayee: Politician and Paradox” में मिलता है.
इस किताब के अनुसार, अरुण शौरी ने वाजपेयी का अखबार हटाते हुए उनसे कहा, “वाजपेयी जी अखबार बाद में पढ़ा जा सकता है, आप आडवाणी जी को वो क्यों नहीं बता देते, जो आप उन्हें बताना चाहते हैं.” वाजपेयी ने अखबार किनारे रखा और अपने चिरपरिचित अंदाज बोले, “जना कृष्णमूर्ति की जगह पर वैंकेया नायडू को नया अध्यक्ष बनाया जाए.” इसके बाद वो कुछ सेकेंड के लिए रुके. उन्होंने मद्धम आवाज में कहा, “मोदी को जाना पड़ेगा.” अरुण शौरी के अनुसार हवाई जहाज में चल रही इस शांतिवार्ता में यह तय हुआ था कि आडवाणी जहाज से उतरने के बाद नरेंद्र मोदी से बात करके उन्हें इस्तीफ़ा देने के लिए कहेंगे.
12 अप्रैल 2002. बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक शुरू हुई. मंच पर अटल और आडवाणी अगल-बगल बैठे हुए थे. उनके साथ बीजेपी के दूसरे राष्ट्रीय स्तर के नेता भी मंच पर थे. नरेंद्र मोदी अपनी बारी आने पर मंच पर चढ़े. उन्होंने अपने लंबे भाषण में गुजरात दंगों पर अपनी सरकार और प्रशासन का बचाव किया. भाषण की अंतिम लाइन में उन्होंने अपने इस्तीफे की पेशकश कर दी. इसके बाद पार्टी की दूसरी पंक्ति के नेता और आरएसएस से पार्टी में आए लोग खड़े होकर नारा लगाने लगे, “इस्तीफ़ा मत दो.” अरुण शौरी कहते हैं-
“मैं सामने बैठे कार्यकारिणी के सदस्यों के साथ सबसे अंत में बैठा हुआ था. मेरे पास यशवंत सिन्हा बैठे हुए थे. जैसे ही मोदी ने इस्तीफ़ा देने की बात कही, हॉल में जगह-जगह से लोग उठ खड़े हुए और नारे लगाने लगे. ऐसा लग रहा था कि जैसे उन्हें ऐसा करने के लिए इशारा किया गया हो. मैंने मंच पर देखा तो अटल जी एकदम हैरान दिख रहे थे. आखिरकार एक दिन पहले ही उनकी आडवाणी के साथ मोदी को हटाने की बात तय हुई थी. यह एक सुनियोजित तख्तापलट था.”
नरेंद्र मोदी के भाषण के बाद अरुण जेटली उठे और उन्होंने कार्यकारिणी के सामने नरेंद्र मोदी के इस्तीफे के विरोध में प्रस्ताव पेश किया. इस प्रस्ताव का समर्थन करने वालों में केशुभाई पटेल और प्रमोद महाजन भी थे. वही महाजन, जिन्हें अटल का सबसे भरोसेमंद आदमी माना जाता था. वाजपेयी अपने सामने यह सब होते हुए देखते रहे थे. ऐसा क्या हुआ कि बीजेपी का चेहरा माने जाने वाले अटल बिहारी वाजपेयी का रसूख इतना छोटा पड़ गया. दरअसल गोवा कार्यकारिणी की बैठक से पहले ही संघ ने बीजेपी के तमाम बड़े नेताओं के सामने यह साफ़ कर दिया था कि नरेंद्र मोदी को हर हाल में बचाया जाना चाहिए, चाहे इसकी एवज में केंद्र की सरकार क्यों न गिरे.
कार्यकारिणी की बैठक के बाद तमाम नेताओं द्वारा एक जनसभा को संबोधित किया जाना था. जनसभा को संबोधित करते हुए अटल बिहारी वाजपेयी के तेवर पूरी तरह से बदल गए थे-
“गुजरात में क्या हुआ? अगर साबरमती रेलगाड़ी के निर्दोष, निरीह, निरापराध यात्रियों को जिंदा जलाने का षड्यंत्र न रचा जाता तो गुजरात की त्रासदी को टाला जा सकता था.”
गुजरात का शेर
अहमदाबाद का मोटेरा क्रिकेट स्टेडियम 8 फरवरी 1994 के रोज भारत में क्रिकेट के दीवानों के जेहन में हमेशा के लिए दर्ज हो गया था. इसी दिन कपिल देव ने अपने करियर का 432वां विकेट लेकर रिचर्ड हेडली के सबसे ज्यादा विकेट लेने के रिकॉर्ड को तोड़ दिया था. बाद में इस स्टेडियम का नाम बदलकर सरदार पटेल क्रिकेट स्टेडियम कर दिया गया लेकिन प्रशंसक आज भी इसे अपने पुराने नाम से ही जानते हैं.
22 दिसंबर 2002. क्रिकेट के कई रंग देख चुका यह स्टेडियम एक बड़े सियासी जलसे का गवाह बन रहा था. मौका था नरेंद्र मोदी के दूसरी बार मुख्यमंत्री बनने का. इस समारोह में अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी के अलावा तत्कालीन केंद्र सरकार के कई मंत्री शामिल थे. तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता, झारखंड के CM बाबूलाल मरांडी और हरियाणा के CM ओम प्रकाश चौटाला भी इस समारोह में दिखे. दिसंबर में हुए विधानसभा चुनाव में बीजेपी को दो-तिहाई से ज्यादा बहुमत मिला था. 182 सीटों वाली विधानसभा में 127 सीटें बीजेपी के खाते में गई थीं. मोदी को गुजरात आए हुए एक साल का समय हुआ था. उस समय उन्हें दिल्ली से भेजा गया था. गुजरात की जनता में लोकप्रियता के मामले में वो केशुभाई के सामने कहीं नहीं टिकते थे. इस चुनाव के बाद मोदी गुजरात का पर्याय बनकर उभरे थे. यह करिश्मा हुआ कैसे?
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अप्रैल में गोवा से लौटने के बाद मोदी को पता था कि कम से कम पार्टी के भीतर से उनके सामने कोई नई चुनौती आने वाली नहीं है. उन्होंने जुलाई 2002 को अपने पद से इस्तीफ़ा देकर राज्यपाल को विधानसभा भंग करने की सिफारिश भेज दी थी. उनका कार्यकाल पूरा होने में अभी आठ महीने का वक्त बाकी था. मोदी वक़्त से पहले चुनाव चाहते थे. उस समय के चीफ इलेक्शन कमिश्नर जे.एम लिंगदोह ने अगस्त 2002 में अहमदाबाद और वडोदरा का दौरा किया. इसके बाद सांप्रदायिक तनाव का हवाला देते हुए चुनाव आयोग ने तत्काल चुनाव करवाने से मना कर दिया.
20 अगस्त 2002. नरेंद्र मोदी एक बार फिर से सुर्खियों में थे. वो चुनाव टाले जाने के निर्णय से बिफरे हुए थे. ऐसे में वडोदरा से 65 किलोमीटर दूर बोडेली में एक सभा को संबोधित करते हुए वो बोले-
“कुछ पत्रकारों ने मुझसे पूछा कि क्या जेम्स माइकल लिंगदोह इटली से आए हैं. मैंने उनसे कहा कि मेरे पास उनकी जन्मपत्री नहीं है. इसके लिए राजीव गांधी से पूछना पड़ेगा.”
आखिरकार दिसम्बर में गुजरात विधानसभा के चुनावों की घोषणा की गई. नरेंद्र मोदी ने प्रचार का लिए वो फॉर्मूला अपनाया, जिसे वो पहले भी कई बार आजमा चुके थे और हर बार इसने अच्छे परिणाम दिए थे. 8 सितंबर 2002 के रोज उन्होंने फागवेल के भाथी जी मंदिर से अपनी ‘गुजरात गौरव यात्रा’ की शुरुआत की. इस यात्रा में उन्होंने 182 में से 150 से ज्यादा विधानसभाओं की यात्रा की. राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि ‘गुजराती अस्मिता’ के नाम पर मोदी ने सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करने का काम किया. इस यात्रा के दौरान नाडियाड में दिए भाषण में उन्होंने कहा-
“छद्म धर्म निरपेक्ष कांग्रेस और मुशर्रफ (पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति) एक ही भाषा में बात कर रहे हैं. गोधरा में जो हुआ, ये लोग उस पर एक भी शब्द नहीं बोलते हैं. गोधरा के बाद जो हुआ उसके नाम पर ये लोग गुजरातियों को गाली निकाल रहे हैं.”
गुजरात गौरव यात्रा ने नरेंद्र मोदी को गुजरात के सबसे बड़े नेता के तौर पर स्थापित कर दिया. आज भी उनका करिश्मा गुजरात की जनता पर जारी है.
एक और तख्ता पलट
2012 का विधानसभा चुनाव जीतने के बाद सियासी गलियारों में यह सुगबुगाहट तेज हो गई थी कि अगले चुनाव में नरेंद्र मोदी बीजेपी की तरफ से प्रधानमंत्री पद के लिए उम्मीदवार होंगे. उनकी उम्मीदवारी की राह में एक आदमी डटकर खड़ा था, लालकृष्ण आडवाणी. आडवाणी 2009 में बीजेपी के चेहरे के तौर पर अपनी किस्मत आजमा चुके थे. उस समय उन्होंने खुद को ‘पीएम इन वेटिंग’ कहा था लेकिन यह इंतजार काफी लंबा हो गया. नरेंद्र मोदी बड़ी मजबूती से प्रधानमंत्री पद के लिए अपनी दावेदारी जता रहे थे. बीजेपी संगठन में निचले स्तर पर कार्यकर्ता उनकी उम्मीदवारी को लेकर उत्साहित थे जबकि ऊपर के स्तर पर राय बंटी हुई थी. बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व में एक खेमा था जो अब भी 85 साल के लालकृष्ण आडवाणी पर अपना दांव लगाने के लिए तैयार था. ऐसे में बीजेपी के भीतर की रस्साकशी काफी तेज हो गई.
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8 जून 2013. लोकसभा चुनाव में महज़ एक साल का वक्त बचा हुआ था. ऐसे में हुई बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक. यह वही गोवा था जहां 11 साल पहले आडवाणी की शह पर नरेंद्र मोदी ने अटल बिहारी वाजपेयी का लगभग तख्तापलट कर दिया था. एक बार फिर से तख्तापलट की सभी तैयारी पूरी कर ली गई थी. 8 जून की शाम बीजेपी प्रवक्ता प्रकाश जावडेकर पत्रकारों को संबोधित कर रहे थे-
“कल शाम तक आपको एक अच्छी खबर मिलने जा रही है. इंतजार करिए.”
मीडिया की नजरें गोवा के साथ-साथ दिल्ली पर टिकी हुई थीं. लालकृष्ण आडवाणी दिल्ली में अपने आवास पर थे. पार्टी की स्थापना के बाद यह पहला मौका था जब वो राष्ट्रीय कार्यकारिणी की मीटिंग में हिस्सा नहीं ले रहे थे. अरुण जेटली, राजनाथ सिंह सहित बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व का हर नेता उन्हें मनाने पहुंच चुका था लेकिन आडवाणी कोपभवन से निकलने को तैयार नहीं थे. हवा का रुख भांपते हुए आडवाणी खेमे के नेताओं ने अपनी वफादारी बदलनी शुरू कर दी थी. आडवाणी की अनुपस्थिति पर सफाई देते हुए बीजेपी अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने पत्रकारों से कहा कि आडवाणी की तबीयत नासाज़ है और बीजेपी अपने किसी भी कार्यकारिणी सदस्य को मीटिंग में आने के लिए बाध्य नहीं कर सकती.
9 नवंबर 2013. बीजेपी कार्यकारिणी की बैठक खत्म होने के तुरंत बाद प्रकाश जावडेकर एक बार फिर से मीडिया से मुखातिब थे. उन्होंने पत्रकारों को बताया कि नरेंद्र मोदी को आने वाले लोकसभा चुनाव के प्रचार अभियान का संयोजक बनाया गया है. यह अनाधिकारिक तौर पर मोदी की उम्मीदवारी का ऐलान था. इसके अगले ही मिनट से आडवाणी राजनीतिक तौर पर अप्रासंगिक हो गए.
नरेंद्र मोदी आज देश के प्रधानमंत्री हैं. उनके नेतृत्व में बीजेपी ने पहली बार 2014 में केंद्र में पूर्ण बहुमत वाली सरकार बनाई. 1985 के बाद यह पहली बार था कि भारत में किसी सरकार को पूर्ण बहुमत हासिल हुआ. उसके बाद 2019 में भी मोदी ने करिश्मा दिखाया और पहले से ज्यादा बहुमत से सरकार बनाई.