आमतौर पर हम अपने पुरखों यानी मर्दों के काम और समाजी योगदान के बारे में ख़ूब जानते हैं. चाहे घर हो या समाज या फिर देश… सदियों से मर्दों के किए गए को ही असली काम और योगदान माना गया. घर में संकटों से बेड़ा पार लगाने वाली महिलाओं को कोई याद नहीं करता. ठीक उसी तरह समाज और देश को बनाने में अपने को आहूत कर देने वाली ज़्यादातर महिलाएं भी गुमनाम रह जाती हैं. हम उदाहरण के तौर पर कुछ महिलाओं के नाम ज़रूर गिना सकते हैं. मगर ये कुछ नाम ही होंगे. हज़ारों के बारे में हमें बस बेनाम ज़िक्र ही मिलता है. कई के बारे में तो बेनामी ज़िक्र भी नहीं मिलता है. कुछ के नाम पता हैं लेकिन उनके काम का कोई लेखा-जोखा नहीं मिलता है.

यही नहीं, कई मामलों में स्त्री ने ख़ुद अपने या अपनी साथी महिलाओं के बारे में न लिखा होता तो अनेक पुरखिनों के तो नामोनिशान भी न मिलते.

जी, बतौर भारतीय मर्दाना समाज, हम ऐसे ही हैं.

इतिहास में जहां पहला स्कूल खोलने का श्रेय ज्योतिबा फुले को दिया जाता है तो पहली शिक्षिका में नाम सावित्री बाई फुले और उनकी सहयोगी फ़ातिमा शेख़ को भी याद किया जाता है.
फ़ातिमा शेख़ ने तकरीबन 175 साल पहले समाज के सबसे दबे-कुचले लोगों और ख़ासकर महिलाओं की तालीम के लिए सावित्री बाई फुले के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम किया.
एक जनवरी सन् 1848 में पुणे के बुधवार पेठ में जब पहला स्कूल खोला गया तो सावित्री बाई के साथ फ़ातिमा शेख़ भी वहाँ पढ़ाती थीं हालांकि फ़ातिमा शेख़ के बारे में लोग कम ही जानते हैं. फ़ातिमा शेख़. के बारे में कुछ फुटकर सूचनाएँ मिलती हैं।

हम जोतिबा और सावित्री बाई फुले के बारे में जानते हैं. जोतिबा सामाजिक क्रांति के अगुआ थे और वंचितों की तालीम के लिए बड़ा काम किया. सावित्री बाई को तो हम भारत की पहली महिला शिक्षिका के रूप में याद करते हैं. क्रांतिज्योति मानते हैं. यही सावित्री बाई अगर किसी के बारे में कह रही हैं कि मेरी ग़ैरहाज़िरी में वह बिना किसी परेशानी के सारे काम संभाल लेगी तो ज़ाहिर है, वह स्त्री भी कम अहमियत नहीं रखती होगी. हम सावित्री बाई के मिशन की इस साथी फ़ातिमा शेख़ के बारे में लगभग नहीं जानते हैं. सावित्री बाई के बारे में भी हम ज़्यादा इसलिए जान पाते हैं क्योंकि उन्होंने और जोतिबा फुले ने कई चीज़ें लिखीं. वे चीज़ें हमें मिल गईं. फ़ातिमा शेख़ के बारे में ऐसी कोई चीज़ हमें अब तक नहीं मिलती. कहानियाँ ज़रूर मिलती हैं. कहानियों का सिरा नहीं मिलता. कोई उन्हें किसी उस्मान शेख़ की बहन बताता है. ऐसा कहा जाता है कि जब सामाजिक काम की वजह से सावित्रीबाई फुले को उनके पिता ने घर से निकाल दिया तो उन्हें उस्मान शेख ने अपने यहाँ जगह दी थी. लेकिन उस्मान शेख़ के बारे में भी जानकारी आसानी से नहीं मिलती है. वैसे यह कितना दिलचस्प है. अगर हम आज फ़ातिमा शेख़ का ज़िक्र भी कर पा रहे हैं तो इस जानकारी का ज़रिया उनकी साथी सावित्री बाई फुले ही हैं. यानी एक स्त्री, दूसरी स्त्री का योगदान हम तक पहुँचा रही है.

सावित्री बाई फुले के हवाले से हमें एक अहम जानकारी मिलती है. ‘सावित्री बाई फुले समग्र वांङ्मय’ में एक तस्वीर है. इस तस्वीर में सावित्री बाई के बगल में ही एक और स्त्री बैठी है. वह स्त्री कोई और नहीं, फ़ातिमा शेख हैं. यह फ़ोटो फ़ातिमा और सावित्री बाई के होने का सबसे बड़ा प्रमाण है.
मुमकिन है, यह तस्वीर न मिलती तो फ़ातिमा शेख़ तो दूर की बात हैं, हमें सावित्री बाई की झलक भी नहीं मिल पाती. हम सावित्री बाई की जो तस्वीर देखते हैं, वह यही है. इसी तस्वीर ने ही फ़ातिमा शेख़ को सावित्री बाई की ही तरह इतिहास का एक अहम किरदार बना दिया है. फ़ातिमा शेख़ को बातस्वीर ज़िंदगी दी है. उन्हें हमारे सामने ला खड़ा किया है. पुणे में महात्मा फुले द्वारा लड़कियों के लिए बनाए गए पहले स्कूल के जर्जर मकान के बाहर जो बोर्ड लगा है, उसमें भी फ़ातिमा शेख़ का ज़िक्र मिलता है. इस जर्जर होते कमरे की दरो-दीवार को ग़ौर से देखने पर हमें फ़र्श पर बैठी लड़कियाँ और उनसे मुख़ातिब दो औरतें यानी सावित्री बाई और फ़ातिमा शेख़ दिखाई देने लगती हैं. जी, लगभग पौने दो सौ साल पहले इसी जगह पर तो ऐतिहासिक बदलाव की नींव पड़ी थी. इन्हीं कमरों में सावित्री बाई और फ़ातिमा शेख़ ने मिलकर लड़कियों को तालीम देने की शुरुआत की थी. इस स्कूल की उम्र और सावित्री बाई की हम उम्र होने की वजह से फ़ातिमा शेख़ की पैदाइश अंदाज़न एक सौ अस्सी-नब्बे साल पहले हुई होगी. इनके काम का क्षेत्र अंग्रेज़ों के ज़माने का पुणे था.

अब एक सबसे अहम बात. वह यह बात है जो फ़ातिमा शेख़ और सावित्री बाई के मज़बूत बहनापे का सबसे बड़ा स्रोत और सुबूत है. सावित्री बाई मायके गई हैं. वहाँ उनकी तबीयत ख़राब हो जाती है. वो पुणे आने की हालत में नहीं हैं. तब तक पुणे में वंचितों और लड़कियों के लिए कई स्कूल खुल चुके हैं. काम काफ़ी ज़्यादा है. तालीम का काम करने वाले जुनूनी लोग कम हैं. ज़ाहिर है, इन स्कूलों के बारे में वे फ़िक्रमंद हैं. वे फुले की चिंता भी समझ रही हैं. इसी दिमाग़ी हालत में वे 10 अक्टूबर 1856 यानी 164 साल पहले ‘सत्यरूप जोतिबा’ को एक चिट्ठी लिखती हैं. वे लिख रही हैं, ‘मेरी फ़िक्र न करें. फ़ातिमा को तकलीफ़ होती होगी. मगर वह आपको परेशान नहीं करेगी और किसी तरह की शिकायत नहीं करेगी.’ फ़ातिमा को किस बारे में तकलीफ़ होती होगी और वह क्यों नहीं परेशान करेगी? यह स्कूल से जुड़ी बात है. यानी, फ़ातिमा महज़ यों ही पढ़ाने वाली कोई स्त्री नहीं हैं. वे सावित्री बाई के साथ कंधे से कंधा मिलाकर लड़कियों को तालीम देने की जद्दोजेहद में शामिल हैं. ज़िम्मेदारी उठाने में वे भी बराबर की भागीदार और साझीदार हैं. वे उनकी साथी हैं. मगर उनकी अपनी अलग शख़्सियत भी है. तब ही तो वे अकेले स्कूल संभाल रही हैं. यह चिट्ठी कुछ और नहीं तो इस बात का सबसे बड़ा सुबूत है. यह एक ज़िक्र फ़ातिम शेख़ को दिमाग़ और ज़िंदगी दे देता है. यानी फ़ातिमा शेख़ किसी की दिमाग़ की उपज नहीं हैं. फ़ातिमा थीं. दिमाग़दार थीं. समाज की मुख़ालफ़त के सामने डटकर वंचितों और स्त्रियों के हक़ में खड़ी रहीं. तो अगर सावित्री बाई पहली महिला शिक्षिका हैं तो फ़ातिमा शेख़ को क्या दर्ज़ा मिलना चाहिए? वे भी तो पहली टीचर हुईं…
जवाब आपके पास है!

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here