लद्दाख अपनी ख़ूबसूरती और दूभर पहाड़ी इलाक़े की वजह से मशहूर है. बीते कई सप्ताह से ये इलाक़ा भारत-चीन के बीच सीमा विवाद को लेकर सुर्ख़ियों में बना हुआ है.
हाल में ही केंद्र शासित प्रदेश बने लद्दाख की एक अलग ही भौगोलिक संरचना है. यहां की पहाड़ियां हिमालय पवर्त श्रृंखला का हिस्सा हैं. यहां झीलें हैं, बर्फ़ से ढके पहाड़ हैं और संकरे दर्रे हैं.
[the_ad id=”635″]
हिमालय के भू-भाग को समझे बिना भारत और चीन के बीच चल रहे मौजूदा विवाद को समझ पाना मुश्किल है.
कैसे बना तिब्बत और भारतीय भूभाग?
करोड़ों साल पहले नियो टेथिस महासागर की लहरें जिस तट से टकराईं उसे आज के वक्त में तिब्बत कहा जाता है. उस वक्त, इंडियन प्लेट कहीं मौजूद नहीं थी.
देहरादून स्थित सरकारी संस्थान वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी (डब्ल्यूआईएचजी) के वैज्ञानिक प्रदीप श्रीवास्तव के मुताबिक़, “चार-पांच करोड़ साल पहले भारतीय प्लेट पैदा हुई और इसकी एशियन प्लेट (मौजूदा तिब्बत) से टक्कर ऐसी ही दूसरी घटनाओं के जैसी थी.”
धीरे-धीरे भारतीय प्लेट नीचे चली गई और यह पूरा महासागर आसपास बिखर गया. झीलें और नदियां जो कि अब तक मौजूद नहीं थीं, अस्तित्व में आ गईं. साथ ही विशाल पहाड़ों की एक श्रृंखला का भी जन्म हुआ.
[the_ad id=”636″]
श्रीवास्तव कहते हैं, “इस टक्कर ने सब कुछ बदल दिया. हिमालय पर्वत अस्तित्व में आया. मॉनसून की हवाएं इस इलाके में पहुंचकर रुकने लगीं. ऐसे में एक हरा-भरा लद्दाख एक शुष्क और बेहद ठंडे रेगिस्तान में तब्दील हो गया. बारिश अब पहाड़ों में अंदर नहीं पहुंच सकती थी.”
ऐसे में टक्कर या टकराव ही इसकी खासियत है. लद्दाख पहले की तरह अभी भी वही टकराव का इलाका है.
यह एक अति-प्राचीन भौगोलिक घटना थी. अब इस इलाके के इतिहास पर नज़र डालते हैं.
वक्त से साथ बदल गए खिलाड़ी
1834 में डोगरा योद्धा गुलाब सिंह ने लद्दाख पर कब्ज़ा कर लिया था. उन्होंने इसे रणजीत सिंह के अधीन फैल रहे सिख साम्राज्य में शामिल कर दिया था.
‘अंडरस्टैंडिंग कश्मीर एंड कश्मीरीज़’ में क्रिस्टोफर स्नेडेन ने इसे गुलाब सिंह द्वारा हासिल की गई सबसे अहम उपलब्धि बताया है. इसकी वजह यह थी कि लद्दाख पर कब्ज़े से उन्हें स्थानीय बकरियों से पैदा होने वाली ऊन के कारोबार पर नियंत्रण की ताकत मिल गई थी.
[the_ad id=”637″]
तिब्बती-चीनी सैनिकों के हाथों इस इलाक़े को गंवाने के बाद उन्होंने 1842 में इस पर फिर से कब्ज़ा कर लिया. साथ ही 1846 में जम्मू और कश्मीर का महाराजा बनने के वक्त उन्होंने इसे अपने राज्य का अभिन्न हिस्सा बना लिया.
101 साल बाद नए बने भारत और पाकिस्तान ने इसे लेकर जंग छेड़ दी.
1950 से लेकर आज के दिन तक भारतीयों और चीनियों के बीच इस इलाके को लेकर कभी सहमति नहीं बन सकी.
आख़िर कैसा है लद्दाख?
बीते कई सप्ताह से डेपसांग, दौलत बेग ओल्डी (डीबीओ), गलवान, पैंगॉन्ग सो, फिंगर एरिया और डेमचोक समेत कई इलाक़ों का ज़िक्र मीडिया रिपोर्ट्स में लगातार हो रहा है, लेकिन क्या आपने सोचा है कि लद्दाख वाकई में कैसा दिखता है?
इन्हीं इलाक़ों के लिए बगैर तय की गई चीनी-भारतीय सीमा रेखा या लाइन ऑफ एक्चुअल कंट्रोल (एलएसी या वास्तविक नियंत्रण रेखा) पर दोनों देशों के अपने-अपने दावे हैं और इसे लेकर भारत और चीन आमने-सामने आ खड़े हुए हैं.
2018 में डिप्टी चीफ़ ऑफ़ आर्मी के पद से रिटायर हुए लेफ्टिनेंट जनरल एस.के पत्याल उन चुनिंदा लोगों में शामिल हैं जिन्हें लद्दाख की गहरी समझ है.
[the_ad id=”638″]
पत्याल बताते हैं, “अगर आप भारतीय सीमा में खड़े हैं और चीन की तरफ़ देख रहे हैं तो पूर्वी लद्दाख एक कटोरे के जैसा दिखेगा. आपके बायीं तरफ काराकोरम दर्रे की सबसे ऊंची चोटी होगी जिसके बाद डीबीओ और फिर गलवान इलाक़ा पड़ता है. इसके आगे नीचे की तरफ पैंगॉन्ग लेक है. जैसे-जैसे आप दायीं तरफ़ बढ़ते जाते हैं ये सब ऊंचाई के लिहाज़ से कम होते जाते हैं. डेमचोक तक चीज़ें तकरीबन फ्लैट हैं, लेकिन डेमचोक के बाद ऊंचाई फिर से बढ़ने लगती है. इस तरह से एक कटोरे जैसी शक्ल पैदा होती है.”
पत्याल लेह स्थित आर्मी की 14वीं कोर की अगुवाई कर चुके हैं. यह भारतीय आर्मी की एक ख़ास फॉर्मेशन है. पाकिस्तान और चीन दोनों से इलाक़े की सुरक्षा का ज़िम्मा इसी कोर के हाथ है.
लद्दाख की सुरक्षा करने में किस तरह की मुश्किलें आती हैं?
लेफ़्टिनेंट जनरल पत्याल कहते हैं, “पूर्वी लद्दाख में कुछ जगहें सियाचिन ग्लेशियर जितनी मुश्किल भरी हैं. हक़ीक़त में, डीबीओ एक ऐसी जगह है जहां पर चाहे सर्दी हो या गर्मी, आप कुछ मिनट से ज़्यादा खुले में खड़े नहीं रह सकते हैं. यहां तेज़ हवा और ठंड आपको टिकने नहीं देती है.”
[the_ad id=”641″]
पत्याल बताते हैं, “घाटियों के इर्द-गिर्द के इलाक़े कम मुश्किल भरे हैं. खासतौर पर गर्मियों में यहां ज़्यादा दिक्कत नहीं होती है. श्योक घाटी इस मुकाबले में ज़्यादा मुश्किल वाली जगह है. इतनी ऊंचाई पर इंसानों की सहनशीलता के सामने बड़ी चुनौती खड़ी हो जाती है.”
“मिसाल के तौर पर, वज़न लेकर चलने की क्षमता कम हो जाती है. चट्टानी इलाक़ा होने से खंदक या बंकर खोदने में ज़्यादा वक़त लगता है. किसी दूसरी जगह पर जो काम करने में कुछ घंटे लगते हैं उन्हें यहां करने में 7-8 दिन का वक़त लग जाता है. मशीनरी लाने-ले जाने में भी मुश्किलें आती हैं.”
लद्दाख आपको चौंकाता है?
रिटायर्ड लेफ्टिनेंट जनरल डी.एस. हुड्डा इस इलाक़े के लिए ‘कपटी’ शब्द का इस्तेमाल करते हैं.
लेकिन, ऐसा क्यों है? हुड्डा कहते हैं, “मिसाल के तौर पर, उत्तरी इलाक़े डेपसांग को ही लीजिए. वहां पहुंचने पर आपको ऐसा लग सकता है कि यह दूसरे समतल इलाक़े जैसा है, आप आसानी से अपनी कार से वहां पहुंच जाएंगे, लेकिन इसकी ऊंचाई करीब 16,000 से 17,000 फीट है. ये आपको ऐसी चीज़ें करने के लिए उकसा सकता है जिन्हें आपको इतनी ऊंचाई पर नहीं करना चाहिए.”
डेपसांग के मैदान दोस्ताना हैं
डीबीओ में भारत का सबसे मुश्किल एडवांस्ड लैंडिंग ग्राउंड (एएलजी) इसी इलाक़े में मौजूद है. भारतीय वायुसेना डीबीओ को 16,300 फीट की ऊंचाई पर मौजूद दुनिया की सबसे ऊंची हवाई पट्टी बताती है.
गुज़रे एक दशक में वायुसेना ने यहां पर हाई-विज़िबिलिटी लैंडिंग की हैं और इस तरह से अपनी ताक़त को दिखाया है.
जनरल हुड्डा कहते हैं, “जैसे ही आप दक्षिण की तरफ़ बढ़ते हैं, आपका सामना गलवान घाटी जैसी जगहों से होता है. चूंकि यहां पर नदी संकरी है, ऐसे में यह घाटी भी संकरी है. इसके और आगे दक्षिण में जाने पर सिंधु घाटी है और चूंकि सिंधु अपेक्षाकृत चौड़ी नदी है, ऐसे में यह घाटी भी चौड़ी है. डेमचोक यहां से और दक्षिण में पड़ता है.”
हुड्डा कहते हैं, “ये कोई आम पहाड़ नहीं हैं. घाटी के तल से पहाड़ की चोटी तक की दूरी दूसरी जगहों जितनी ज़्यादा नहीं है. यह इलाक़ा ऊपर उठा हुआ है. पैंगॉन्ग सो झील को देखिए. इसकी ऊंचाई 14,000 फीट से ज्यादा है. करगिल में कुछ जगहों पर जहां हमने घुसपैठियों से लड़ाई लड़ी, वहां इतनी ऊंचाई थी. झील के उत्तरी किनारे पर फिंगर्स कॉम्पलेक्स है. नंगी आंखों से ये छोटी लकीरों और चोटियों जैसी दिखाई देती हैं, लेकिन इनकी ऊंचाई झील से भी ज्यादा है.”
[the_ad id=”374″]
एलएसी की दूसरी ओर कैसा इलाका है?
हुड्डा कहते हैं, “उनकी (चीनी) तरफ, तिब्बत का इलाका अपेक्षाकृत समतल है. लेकिन, ऊंचाई के लिहाज़ से ज़्यादा अंतर नहीं है.”
ये फिंगर एरिया नाम कैसे पड़ा? जनरल पत्याल इस सवाल पर बताते हैं, “झील के उत्तरी किनारे की रिजलाइन पर, जहां हम पेट्रोलिंग करते हैं, वहां से जब आप झील को देखते हैं तो ये उभार हाथ की उंगलियों जैसे दिखते हैं. ये आठ उंगलियों जैसे दिखते हैं.”
“ऐसे में हमने इन्हें 1 से 8 फिंगर्स की संख्या दी है. फिंगर 4 तक हमारी सड़क है और उनकी सड़क फिंगर 8 तक है. फिंगर 4 से 8 के बीच का इलाक़ा जीप वाला है, लेकिन, चूंकि इस जगह पर विवाद है, ऐसे में यहां न हम उन्हें आने की इजाज़त देते हैं और न ही वे हमें.”
लेकिन, एक चीज़ पर भारत और चीन दोनों ही राज़ी हैं. हुड्डा कहते हैं, “भारत और चीन दोनों ही इसे फिंगर एरिया बुलाते हैं. कई सालों से ऐसा चला आ रहा है.”